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ॐ २०८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
एकान्त नियतिवाद की प्ररूपणा
इसी प्रकार आजीवक मत का एकान्त नियतिवाद भी नियति को सर्वदुःख. कर्मक्षयरूप मोक्ष-प्राप्ति का कारण मानता है। बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में गोशालक के नियतिवाद का उल्लेख इस प्रकार हैएकान्त नियतिवादी : मोक्षमार्ग के मिथ्याप्ररूपक ___ एकान्त नियतिवाद भी सर्वदुःखान्तरूप मोक्ष का कारण (मार्ग) नहीं हो सकता, क्योंकि आजीवक मत प्ररूपित नियतिवाद का सिद्धान्त 'सूत्रपिटक के दीघनिकाय' में इस प्रकार है-"...सत्वों के क्लेश (दुःख) का हेतु और प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही सत्व (प्राणी) क्लेश पाते हैं तथा बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व शुद्ध होते हैं। न वे स्वयं कुछ कर सकते हैं, न पराये कुछ कर सकते हैं। (कोई) पुरुषार्थ (पुरुषकार) नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का साहस (स्थाम) नहीं है और न पुरुष का कोई पराक्रम है। समस्त सत्व, समस्त प्राणी, समरत भूत और समस्त जीव अवश (लाचार) हैं, निर्बल हैं, निर्वीर्य हैं। नियति के संयोग से छह जातियों में (उत्पन्न होकर) सुख-दुःख भोगते हैं। जिन्हें मूर्ख
और पण्डित जानकर और अनुगमन कर दुःखों का अन्त कर सकते हैं। वहाँ यह नहीं है कि इस शील, व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व कर लूँगा, परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूँगा। सुख और दुःख तो द्रोण (माप) से नपे-तुले (नियत) हैं। संसार में न्यूनाधिक या उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं है। जैसे सूत की गोली फेंकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही बाल (अज्ञानी) और पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःख का अन्त (मोक्ष प्राप्त) करेंगे।' एकान्त नियति सर्वदुःखान्तरूप मोक्ष का कारण नहीं : क्यों और कैसे ?
'सूत्रकृतांगसूत्र' में नियतिवाद को सांगतिक कहा गया है, अर्थात सम्यक (अपने) परिणाम से जो गति है, वह संगति है। जिस जीव की जिस मभय, जहाँ, जिस सुख-दुःख का अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है ; वही नियति है। उस संगति = नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, वह सांगतिक कहलाता है। एकान्त नियतिवाद काल, स्वभाव, स्वकृत कर्म या ईश्वरकत कर्म (पुरुषार्थ) आदि सभी को अमान्य करके एकान्त नियतिवाद की प्ररूपणा करता है और उसी के ज्ञान और अनुगमन को सर्वदुःखों से मुक्तिरूप मोक्ष का मार्ग (कारण या १. मखलिगोसालो में एतदवोच-नत्थि महाराज ! हेतु, नत्थि पच्चमो सत्तानं संकिलेसाय। अहेतु
अपच्चया सत्ता संकिलिस्संति, नत्थि हेतु नत्थि पच्चया सत्तानं विसुद्धिया। अहेतु अपच्चया सत्ता विसुझंति। नत्थि अत्तकारे, नत्थि पुरिक्कारे, नत्थि वलं, नत्थि वीरियं एवमेव बाले. च पंडिते च संधावित्वा संसरित्वा दुक्खस्संतं करिस्संतीति। '
-सुत्तपिटके दीघनिकाये (पाली, भा. १) सामञ्जफलसुत्त, पृ. ४१-५३
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