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ॐ ३४४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
चार आचार ही पर्याप्त हैं, पाँचवें वीर्याचार के कथन का क्या प्रयोजन ?
प्रश्न होता है-आत्मा के चार निजी गुणों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए तो ज्ञानादि चार आचार ही पर्याप्त हैं, फिर पाँचवें बीर्याचार का विधान किसलिए किया गया है ? इसका समाधान ‘निशीथभाष्य चूर्णि' में इस प्रकार किया गया है“आठ प्रकार का ज्ञानाचार, अष्टविध दर्शनाचार, अष्टविध चारित्राचार और बारह प्रकार का तपाचार, ये सब कुल मिलाकर ३६ होते हैं। इन छत्तीस ही आचार-प्रकारों में अपनी कायिक-वाचिक-मानसिक आत्मिक-शक्ति को नहीं छिपाना, जहाँ तक जितना भी आत्मा में उत्थान, कर्म, बल, सामर्थ्य, पराक्रम, उत्साह तथा शक्ति के रूप में वीर्य प्रगट होता है, उसका गोपन नहीं करना चाहिए। यही वीर्याचार का उद्देश्य-प्रयोजन है। आचार्य जिनदास महत्तर के शब्दों में “वीर्य (शक्ति) को छिपाना नहीं चाहिए। शक्ति (वीर्य) होते हुए दूसरे को (उस कार्य को करने के लिए) आज्ञा नहीं देनी चाहिए।"7 “संवृत तपस्वीं वीर्य (शक्ति) पाकर कर्मरज को नष्ट करे।' 'उत्तराध्ययन' में यह भगवद्वचन है। इसीलिए इन चारों आचारों के बाद वीर्याचार का कथन किया गया है।
‘निशीथभाष्य' में भी कहा है-“शक्ति (वीर्य) विहीन व्यक्ति ज्ञान आदि की सम्यक्साधना में प्रवृत्त नहीं हो सकता।" केवल ज्ञानाचार ही मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं, अन्य चार आचार भी अनिवार्य हैं
प्रस्तुत आचार के पाँच भेद करने का एक कारण यह भी रहा है कि कतिपय दर्शन सिर्फ ज्ञान को ही महत्त्व देते हैं। कतिपय एकान्त निश्चय दृष्टिवादी भी इसी मत के प्रायः पक्षधर हैं, उनका कहना है कि एकमात्र आत्मा का ही ज्ञान करना पर्याप्त है, अहिंसादि महाव्रतों का पालन अथवा त्याग, तप, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि शरीर से सम्बन्धित होने से शुभ योग हैं, इसलिए उपादेय नहीं हैं। व्यवहारनय अभूतार्थ है। १. न निण्हवेज्ज वीरियं। संते वीरिए अण्णो न अणाइयव्वो। २. तवस्सी वीरियं लद्धं संवुडे निधुणे रयं।।
-उत्तरा. ३/११ ३. णाणे दंसण-चरणे तवे य छत्तीसती य भेदेसु।
विरियं ण तु हावेज्जा, सट्ठाणावरोवणा वेंते॥४४॥ अट्ठविहो णाणायारो, दंसणायारो वि अद्वविहो, चरित्तायारो वि अट्टविहो, तवायारो ‘बारसविहो, एते समुदिता छत्तीसं भवति। एतेसु छत्तीसईए भेदेसु वीरियं न हावेयव्वं । वीरियंति वा बलंति वा सामत्थंति वा परक्कमोत्ति वा थामोत्ति वा एगट्ठा। वीरियं णाम शक्तिः। सति बल-परक्कमे अकरणं गृहणं, ण गृहणं अगृहणं ॥४३॥
-निशीथभाष्य चूर्णि, गा. ४४, ४३ ४. ण हु वीरिय-परिहीणो पवत्तते णाणमादीसु।
-वही ४८
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