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ॐ ३४६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
ज्ञानाचार को ही सर्वाधिक महत्त्व और प्राथमिकता क्यों ? -
यद्यपि पंचविध आचारों में ज्ञानाचार का महत्त्व सबसे अधिक है। क्योंकि आत्मा . का अभिन्न गुण ज्ञान है, आचारांग आदि शास्त्रों में इसे श्रुतधर्म कहा गया है। दर्शनाचार ज्ञानाचार में समाविष्ट हो जाता है। अब रहा वीर्याचार, वह आत्मिकशक्ति का ही दूसरा नाम है। शेष रहे चारित्राचार और तपाचार। वर्तमान में कुछ अल्पश्रुतज्ञ महानुभाव इन दो को ही आचार समझ बैठे हैं। वे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन को इतना महत्त्व नहीं देते। परन्तु शास्त्रों में यत्र-तत्र यह स्पष्ट निर्देश है कि ज्ञान और दर्शन के बिना जो आचार है, वह मिथ्याचार है और जो तप है, वह बालतप। मिथ्याचार एवं बालतप मोक्ष के साधन नहीं हो सकते। ज्ञान के अभाव में थोथा शुष्क क्रियाकाण्ड या कठोर बाह्यतप सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप नहीं हो सकता। 'दशवकालिकसूत्र' में स्पष्ट कहा है कि “अज्ञानी आत्मा संयम-असंयम को, श्रेय-अश्रेय को, पुण्य-पाप को या कल्याण-अंकल्याण को नहीं जान पाता।" इसलिए चारित्राचार के साथ-साथ वीतरागता-प्राप्ति या सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष-प्राप्ति के लिए ज्ञानाचारादि अन्य चार आचारों को जीवन में क्रियान्वित करना अत्यावश्यक है।
'निशीथचूर्णि' में ज्ञानाचार की सर्वप्रथम अनिवार्यता एवं उपयोगिता के लिए कहा है-“सम्यग्ज्ञान के होने पर मुमुक्षु साधक जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ पदार्थों (तत्त्वों) के भलीभाँति हृदयंगम हो जाने पर, इनके सम्यग्ज्ञान से हेय-उपादेय को भलीभाँति जानकर ही साधक चारित्राचार और तपाचार में कर्मक्षय करने की दृष्टि से प्रवृत्त हो सकता है, क्योंकि चारित्र का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-अज्ञान से उपचित (बद्ध) कर्मचय को रिक्त करना चारित्र है तथा तप का भी निर्वचन किया है जिससे पापकर्म तपाया जाय, वह तप है।"२
१. (क) नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो ॥
-उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. ३० (ख) पठमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
अन्नाणी किं काही, किं वा नाही य सेय-पावणं ॥१०॥ जीवाजीवे अयाणंतो कहं सो नाहीह संजमं?॥१२॥
तया पुण्णं च पावं च बंधं मुक्खं च जाणइ॥१५॥ -दशवै., अ. ४, गा. १0, १२, १५ (ग) देखें- जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' में पं. विजय मुनि शास्त्री की प्रस्तावना,
पृ. ४१ णाणे सुपरिच्छियत्थे, चरण-तव-वीरियं च तत्थेव। पंचविहं जतो विरियं, तम्हा सव्वेसु अधियारो॥४६॥ जया णाणेण जीवाजीव-बंध-पुण्ण-पावासव-संवर-णिज्जरा-मोक्खो य, एते सुट्ठ परिच्छिन्ना भवंति, तदा चरणतवा पवत्तंति। अण्णाणोवचियस्स कम्मचयस्स दित्तीकरणं चारित्तं। तप्पते अण्णेण पावं कम्ममिति तपो।
-निशीथभाष्य चूर्णि, गा. ४६
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