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8 मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ॐ ३६३ ॐ
मृत्यु शान्तिदात्री, दयालु, महानिद्रा और
नवजीवनदायिनी है, उससे डर कैसा? मरण के सम्बन्ध में गलत ख्याल के कारण मनुष्य मृत्यु से भयभीत होता है, उसका नाम भी सुनना नहीं चाहता। परन्तु मृत्यु से डरने की बात वृथा है। जैसे दिन के बाद रात आती है। दिनभर जागने के बाद मनुष्य उस थकान को मिटाने के लिए रात को सोता है। ऐसी स्थिति में वह न तो रात से डरता है और न नींद को भूलता है; न ही भूलना चाहता है। नींद का स्मरण मनुष्य को प्यारा लगता है। मनुष्य जब रोग, चिन्ता, उद्विग्नता या किसी पीड़ा के कारण शय्या पर पड़ा-पड़ा नींद के लिए तड़फता है, बेसब्री से शान्ति की आकांक्षा किया करता है; तब दयालु निद्रा आकर उसे शान्त करती है। इसीलिए निद्रा को एक अंग्रेज कवि ने 'Kind nurse of men-मनुष्य की दयालु दाई' कहा है। वैसे मृत्यु महानिद्रा है, दयालु है, शान्तिदात्री, परम सखा है। वह भगवद्गीता की भाषा में वस्त्र बदलती है। मनुष्य का इस जन्म का आयुष्य पूर्ण होने पर उसे दूसरा नया जन्म पाने का अवसर देती है। जैसे नींद का स्मरण हमें प्यारा लगता है, वैसे ही मृत्यु का स्मरण भी प्यारा लगना चाहिए। अतः मृत्यु डरावनी, त्रासदायिनी या भयंकर लगती है, सिर्फ भ्रान्ति के कारण। एक तरह से वह दुःखमुक्त करने वाली भी है।
___ मृत्यु के स्मरण से अनेक लाभ जीवन को जाग्रत रहकर गुणों से समृद्ध बनाने के लिए मरण का स्मरण आवश्यक है। मरण के बिना जीवन की साधना, जीवन में प्रगति, रत्नत्रय की उपासना के लिए अप्रमादपूर्वक जागृति को अवकाश नहीं रहेगा। मरण के चमत्कार के बिना जीवन जड़ता का प्रतिनिधि, आलसी, अकर्मण्य और तामसिक तथा नीरस बन जाएगा। मरण है, इसीलिए ताजगी है, उत्साह है, जीवन को शुद्ध बनाने का अवकाश है। यों कहें तो अत्युक्ति न होगी कि मरण के बिना जीवन में आस्तिकता, पूर्व-जन्म और पुनर्जन्म के प्रति आस्था नहीं टिकेगी। ... मृत्यु के आगमन से पूर्व ही हम उसके स्वागतार्थ क्यों न तैयार रहें ? । प्रकृति या आयुकर्म की प्रकृति जीवन और मरण दोनों का अनिवार्य रूप से साथ-साथ देती है। अतः जीवन के प्रति पुरस्कार और मरण के प्रति तिरस्कार का सुख हम क्यों रखें ? दोनों के प्रति हमारा रुख एक-सा होना चाहिए। हम नाहक ही मरण को भूल जाने की भरसक चेष्टा करें और वह दबे पाँव हमारा पीछा करे, यकायक हमारे केश पकड़े और हमें खींचकर ले जाने लगे, हम उसकी उपेक्षा या
१. (क) 'परम सखा : मृत्यु' (काका कालेलकर) से भाव ग्रहण, पृ. ६१-६३, ११ . (ख) 'जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण' (उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण
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