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ॐ ३६४ ® कर्मविज्ञान : भाग ८
विस्मृति करके छूटने का प्रयत्न करें, वह हमें रोते-कलपते ही उठाकर ले जाए, यह दृश्य कितना बेहूदा, अभद्र और शर्मनाक है ? मरण आए, उससे पहले ही हम तैयार रहें। भव्य और संयम से सुगन्धित जीवन पुष्पमाला हाथ में लेकर हम उसके स्वागत के लिये क्यों न तैयार रहें ? मृत्यु के आगमन से पूर्व ही हम सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्षमार्ग की साधना करके पक्के, स्थायी और सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को प्राप्त करके सदा-सदा के लिए जन्म-मरणादि रूप चातुर्गतिक संसार का अन्त क्यों न कर दें? मरण का स्वेच्छा से, प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करके अनन्त ज्ञानादि बहुरूप को प्राप्त करने में अपनी आध्यात्मिक शक्ति क्यों न लगाएँ? ऐसी उच्च स्थिति और सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को पाने के लिये जीवन की तरह मृत्यु को शानदार. बनाना क्या अनिवार्य नहीं है ?? | मृत्यु लाभदायक या हानिकारक : किसके लिए और क्यों ?
सभी मानव यह तो जानते ही हैं कि संसार में मृत्यु न होती तो शायद मनुष्य कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगता रहता। धरती पर पैर रखने की भी जगह न मिलती। मृत्यु के कारण ही संसार का क्रम व्यवस्थित रूप से चल रहा है, मरने से जो बचे हैं, उनके सुखरूप से जीने के लिए साधन उपलब्ध हैं। मृत्यु के बिना जीने का क्रम चल ही नहीं सकता। अगर मनुष्य मृत्यु का यथार्थ स्वरूप समझ ले तथा जिस संसार में वह रह रहा है, उसके साथ शरीर, परिवार, राज्य, राष्ट्र, धन-सम्पत्ति, मकान आदि का क्या सम्बन्ध है ? यह सम्बन्ध एक दिन छूटने वाला है या कायम रहने वाला है ? इष्ट का संयोग-वियोग, अनिष्ट का संयोग-वियोग क्या है, क्यों है
और इनसे मनुष्य सुख-दुःख का अनुभव क्यों करता है? पूर्ण-मृत्यु होने पर क्या-क्या साथ में जाते हैं ? परलोक में शुभाशुभ कर्म के सिवाय क्या जाता है ? इन और ऐसे सभी प्रश्नों का सही उत्तर जान-समझ लें तो मृत्यु का जो भय दिमाग में घुसा हुआ है, वह निकल सकता है। फिर वह मृत्यु को शत्रुवत् नहीं, मित्रवत् ही देखेगा। संसार में जितने दिन जीएगा, सुख, शान्ति और समाधि के साथ जी सकता है और मृत्यु का भी वह प्रसन्नतापूर्वक स्वागत कर सकता है। अथवा जीवन को सफल बनाने के लिए व्यक्ति सत्कर्म करे, व्रतादि का आचरण करे, अन्तिम समय में समाधिपूर्वक मृत्यु को स्वीकार करे तो उसे मृत्यु के बाद परलोक में जाने में किसी प्रकार का भय नहीं होता। परन्तु जिसने जीवन में सत्कर्म नहीं किया, धर्माचरण से विमुख रहा, हिंसादि पाप करके दूसरों को पीड़ा पहुँचाई, दमन और शोषण किया, दूसरों के घर-परिवार उजाड़े, पंचेन्द्रियों के विषयभोगों में आसक्ति १. (क) 'परम सखा : मृत्यु' से भाव ग्रहण, पृ. ११
(ख) 'जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण' से भाव ग्रहण, पृ. १९ . (ग) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ५, गा. ४-१३
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