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* ३६६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
शरीर आत्मा से अलग होता (छूटता) है, तो वह मृत्यु भी समाधिपूर्वक होगी, उसका जीवन भी समाधियुक्त होगा। वह मृत्यु दुःखदायी नहीं, सुखदायी और सन्तोषकारक होगी। ‘महापच्चक्खाण पइण्णयं' के शब्दों में उसे यह दृढ़ निश्चय (विवेक) हो जाता है कि "धीर पुरुष को भी एक दिन अवश्य मरना है और कायर पुरुष को भी। इन दोनों प्रकार के मरणों में धीरतापूर्वक (समाधिभाव से) मरना अवश्य ही श्रेष्ठ है।'' दो प्रकार के मरण : सकाममरण और अकाममरण
इसीलिए भगवान महावीर ने दो प्रकार के मरण वताए हैं-(१) अकाममरण, और (२) सकाममरण। इन्हें ही दूसरे शब्दों में बालमरण और पण्डितमरण कहा जाता है, अथवा इन्हें ही असमाधिमरण और समाधिमरण कहा जा सकता है। बालमरण : अकाममरण या असमाधिमरण
जो आत्मा अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होकर संसार के भोगविलास में आसक्त गृद्ध और मोहमूढ़ बना रहता है। विषयभोगों में आसक्त होकर बेखटके क्रूर कर्म करता है। ऐसा अज्ञानी जीव निःशंक होकर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, माया, मद्य, माँस आदि का सेवन करता हुआ प्रतिक्षण मन-वचन-काया से पापकर्म करता रहता है। वह भविष्य का या परिणाम का कोई विचार किये बिना यही सोचता और कहता है-“ये कामभोग हस्तगत हैं, इन्हें छोड़कर भविष्य के कामसुखों की आशा कौन करे? फिर परलोक है या नहीं, यह कौन जानता है ? परलोक को किसी ने प्रत्यक्ष देखा भी नहीं है। इतने-इतने लोग कामभोगों के सुखों में मग्न हैं, उनकी जो गति होगी, वही मेरी गति होगी। इस प्रकार ढीठ होकर वह अज्ञानी कामभोगों में रचापचा रहता है और त्रस-स्थावर प्राणियों का सार्थक और निरर्थक वध करता रहता है। ऐसे विवेकहीन लोगों का अन्तिम समय शरीर-त्याग करना अकाममरण है। वह अन्तिम समय में शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव (अपने स्वजन-परिजन) और निर्जीव (धन, मकान, वस्त्राभूषण आदि) पदार्थों में आसक्तिवश चिन्तित, व्यथित, क्लेशयुक्त रहता है और मोहमूढ़ होकर हाय-हाय करते हुए शोकाकुल होकर शरीर छोड़ता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु को बालमरणअविवेकपूर्वकमरण या असमाधिमरण कहा गया है।
१. (क) 'परम सखा : मृत्यु' से भाव ग्रहण, पृ. १८ (ख) धीरेणवि मरियव्वं कापुरिसेण वि अवस्सं मरियव्वं।
दोहंपि य मरणाणं, वरं खु धीरत्तणं मरिउं॥ २. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ५ की गाथाओं का भावानुवाद
-म.पं. व्या. १४१
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