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* ३४८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
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(२) दर्शनाचार-इसके पश्चात् आता है-दर्शनाचार। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यक् बनता है। दर्शन से देव, गुरु, धर्म और शास्त्र पर श्रद्धा सुदृढ़ होती है। इसलिए श्रद्धा को सुदृढ़ करने और उसका सक्रिय आचरण करने से दर्शनाचार सर्वकर्ममुक्ति का कारण बनता है।
(३) चारित्राचार-चारित्राचार इसलिए आवश्यक है कि ज्ञान और दर्शन तो संज्ञी पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, देव और अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत श्रावक में भी हो सकता है, किन्तु चारित्र = सर्वविरितचारित्र द्रव्य से-महाव्रती साधक के होता है, किन्तु भावरूप से सम्यक्चारित्र अन्य गृहस्थों के भी हो सकता है। चारित्र के बिना मोक्ष और निर्वाण सम्भव नहीं है। चारित्र से कषायों और राग-द्वेषादि विभावों को रोकने और क्षय करने की प्रतिरोधात्मक शक्ति प्राप्त होती है, इसलिए चारित्राचार भी आवश्यक है। 'उत्तराध्ययन' में स्पष्ट कहा है-“तदन्तर चारित्राचार के गुणों से युक्त साधक अनुत्तर संयम का पालन करके आम्रवरहित (संवर-सम्पन्न) होकर कर्मों का सम्यक् क्षय करके विपुलोत्तम ध्रुव अचल मोक्षस्थान को प्राप्त कर लेता है।" __(४) तपाचार-तपाचार का अन्तर्भाव चारित्राचार में हो जाता है, फिर भी पृथक् बताने का आशय यह है कि बाह्य-आभ्यन्तर तप के बिना कर्मों का अंशतः क्षय (सकामनिर्जरा) नहीं होता और तप के लिए इच्छाओं का निरोध आवश्यक है। सकामनिर्जरा भी तभी हो सकती है, जब कष्टों, उपसर्गों और परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने की शक्ति हो। तपश्चर्या से सहन-शक्ति, तितिक्षा और सहिष्णुता बढ़ती है। कषायविजय भी तप से प्राप्त होता है।
(५) वीर्याचार-अब रहा वीर्याचार; उसकी आवश्यकता इसलिए है, कई बार मनुष्य में ज्ञान प्राप्त करने, श्रद्धा में दृढ़ रहने की, चारित्र-पालन करने की और बाह्य-आभ्यन्तर तप करने की शक्ति, रुचि, बलवीर्य आदि होते हैं, किन्तु प्रमाद, आलस्य, अनुत्साह, विषाद, अधैर्य, विषयासक्ति की तीव्रता, अष्टविध मद, कषाय, निद्रातिरेक, निन्दारस, विकथा में वृत्ति-प्रवृत्ति आदि होने से वह पराक्रम नहीं कर पाता। वीर्याचार इन सब पूर्वोक्त आचारों में पराक्रम करने की शक्ति (पावर) भरता है, उत्साह और साहस बढ़ाता है। जिससे व्यक्ति के मन में आई हुई हीनभावना, निराशा, अनुत्साह और प्रमादीवृत्ति समाप्त हो जाती है। इसलिए वीर्याचार को पूर्वोक्त चारों आचारों में प्रबल रूप से विधिवत् प्रवृत्त कराने वाला, आत्मा की सुषुप्त शक्ति को जगाने वाला कहा गया है।
१. चरित्तमायारगुणन्निए तओ, अणुत्तरं संजम पालियाण। निरासवे संखवियाण कम्म, ठवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं॥
-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २0, गा. ५२
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