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मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ३५७
- हे भव्य जीवो ! प्रतिक्षण होने वाले इस भावमरण के प्रवाह में क्यों बह जाते हो ? ज्ञान-साधक तो इस प्रतिक्षणवर्ती भावमरण से वचकर उस पर विजय पा लेता है। वह तो श्वासोच्छ्वास के साथ प्रतिक्षण होने वाले द्रव्यमरण के समय भी सावधान रहता है। वह उसे कोई भी चांस नहीं देता कि द्रव्यमरण उसे पराजित कर दे, उस पर हावी हो जाए । 'चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक' में इसी तथ्य को स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहा गया है - "मोक्षमार्ग में लीन (वे साधक) धन्य हैं, जो निरन्तर सद्गुणों (आत्मा के निजी गुणों) में रमण करते हैं तथा इस लोक एवं परलोक में तथा जीवन और मरण (के सम्बन्ध) में सदा अप्रतिवद्ध रहते हैं । " "
जीवन के दर्शन की तरह मरण के दर्शन को भी गहराई से समझो अतः पूर्वोक्त आवीचिमरण ( प्रतिक्षण मरण नित्य मरण) हो या तद्भव-मरण (इस भव में प्राप्त शरीर का छूटना ) मृत्यु के इन दोनों प्रकारों में जीवन और मरण दोनों को साथ- साथ ही समझना चाहिए । सम्यग्दृष्टि साधक के लिए यह आवश्यक है कि जितनी गहराई से वह जीवन के दर्शन को समझता है, उतनी ही गहराई से मृत्यु के दर्शन को समझना आवश्यक है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं, इसलिए दोनों को साथ-साथ समझना अनिवार्य है।
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मृत्यु
के बिना जीवन की कोई मूल्यवत्ता नहीं है वैसे देखा जाए तो जीवनरूपी सरिता के दो किनारे हैं - एक है जन्म तो दूसरा है मृत्यु । जन्म जीवनरूपी पुस्तक का प्रथम पृष्ठ है तो मरण उसका अन्तिम पृष्ठ है। मृत्यु के विना जीवन का कोई महत्त्व नहीं है। जैसे रात के बिना दिन की, अन्धकार के बिना प्रकाश की, दुःख के बिना सुख की, रोग के बिना दवा की, पूर्ण विराम के बिना वाक्य-रचना की कोई उपयोगिता या महत्तां नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के बिना जीने की, जीवन - सुख की क्या उपयोगिता या मूल्यवत्ता है ? जिस प्रकार नींद और जागरण, श्वास और उच्छ्वास दोनों के मिलने से शरीर का व्यापार ठीक चलता है; आरोह और अवरोह दोनों मिलकर संगीत के स्वरों को · प्राणवान् बनाते हैं, उन्मेष (नेत्रों को खोलना) और निमेष ( पलक झपकना) दोनों के मिलने से ही अवलोकन की क्रिया पूर्ण होती है; प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मिलकर ही चारित्र की साधना कहलाती है, कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष दोनों मिलकर ही 'मास' कहलाता है, इसी प्रकार जन्म और मरण दोनों मिलकर ही जीवन पूर्ण बनता है। अतः यह सत्य है कि जन्म और मृत्यु का या जीवन और मरण का युगल है, जोड़ा है, जीवन की पूर्णता का। तात्पर्य यह है कि जीवन के दर्शन को
१. धन्ना अविरहियगुणा विहरंति मोक्खमग्गम्मि लीणा । इह य परत्थ य लोए, जीविय - मरणे अपडिबद्धा ॥
- चंदावेज्झयं पइण्णयं, गा. १४८
२. 'जीवन की अन्तिम मुस्कान' (उपाध्याय श्री केवल मुनि जी ) से भाव ग्रहण, पृ. ३-४
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