________________
* ३५८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ *
छोड़कर मृत्यु के दर्शन को नहीं समझा जा सकता; तथैव मृत्यु के दर्शन को छोड़कर भी जीवन के दर्शन को नहीं समझा जा सकता। जीवन को सुखद बनाने का जितना ध्यान है, उसका शतांश भी मृत्यु का नहीं
परन्तु अफसोस है कि आज के अधिकांश मानव-जीवन के बारे में जितना सोचते-समझते हैं, उतना, उसका शतांश भी मृत्यु की असलियत के बारे में सोचते-समझते नहीं हैं। सच कहें तो जीवन के लिए वैदिक ऋषि की तरह अधिकांश मानव सोचते हैं-"मैं सौ वर्ष तक सुख से जीऊँ।"२ जीवन के अथ से इति तक व्यक्ति प्रायः यही सोचता रहता है-जीवन को येन-केन-प्रकारेण आनन्द और उल्लास के साथ बिताऊँ। मेरे जीवन में कभी कोई विपत्ति, कष्ट या संकट न आए, जीवन को सुखद बनाने के लिए भोगोपभोग के साधन अधिकाधिक जुटाऊँ। दीर्घकाल तक सुख से जीने की इच्छा को मूर्तरूप देने के लिए मनुष्य ने भव्य भवन, उद्यान, ग्राम, नगरों आदि का निर्माण किया; शरीर का कभी वियोग न हो, वह सदैव सुखोपभोग में रत रहे, इसके लिए विविध प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थ,
औषध, इंजेक्शन आदि जुटाए, मनोरंजन के लिए साहित्य, संगीत, नाटक, वाद्य, चलचित्र, रेडियो, टी. वी., टेलीफोन आदि साधनों का बेखटके उपयोग करने लगा। यात्रा के लिए द्रुतगामी विविध वाहनों का उपयोग धड़ल्ले से करने लगा। इन सब का उपयोग और उपभोग करते समय भी उन मनुष्यों के मन में यह विचार प्रायः नहीं आता कि हमें एक दिन इन सब को, यहाँ तक कि शरीर, इन्द्रियों, स्वजन-परिजनों आदि सबको छोड़कर जाना पड़ेगा। बल्कि वह सुखपूर्वक जीने का ही रंगीन स्वप्न देखता रहता है। जीवन सबको प्रिय है, मृत्यु नहीं : क्यों और किसलिए? ___ शास्त्रकारों के अनुभवपूत वाक्य भी इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं-“सबको जीवन प्रिय है।" "सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता।"३ मरने का नाम सुनते ही व्यक्ति घबराता है। किसी को यह कहा जाय कि 'मर जाओ', तब बहुत बुरा लगता है; 'जिन्दा रहो', 'जीते रहो', यह शब्द सबको प्रिय लगता है। जो लोग स्थूलदृष्टि वाले हैं, उनको मृत्यु शब्द के पीछे जो अच्छाई है, वह समझ में नहीं आती, उन्हें अपने शरीर, स्व-जन, धन तथा सभी साधनों के प्रति अत्यन्त मोह होता है, जो नाशवान् हैं, पर-पदार्थ हैं, एक दिन अवश्य छूटने वाले हैं, उनके १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ६८९ २. जीवेम शरदः शतम्।
__ -यजुर्वेद ३६/२४४ ३. (क) सव्वेसिं जीवियं पियं।
__ -आचारांग, श्रु. १, अ..२, उ.३ (ख) सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउं, न मरिज्जिउं।
-दशवैकालिक ६/१०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org