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* मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार * ३४७ ॐ
सम्यक् पंच-आचारों का प्रयोजन (१) ज्ञानाचार-ज्ञान से हेय-उपादेय तत्त्व का विवेक होता है, कदाग्रह का अन्त होता है, उससे समभाव-शक्ति और शान्ति बढ़ती है। 'स्थानांगसूत्र' में श्रुत (शास्त्रज्ञान) क्यों सीखा जाता है ? इससे उत्तर में कहा गया है-"ज्ञान-वृद्धि के लिए, दर्शन-शुद्धि के लिए, चारित्र-शुद्धि के लिए, कदाग्रह का अन्त करने के लिए तथा यथार्थ भावों को जानने के लिए।'' ज्ञानाचार की महत्ता बताते हुए कहा गया है-“अज्ञानी आत्मा जिन पूर्वबद्ध कर्मों को बहु-कोटि वर्षों में क्षय कर पाता है, सम्यग्ज्ञानी उन्हीं कर्मों को सिर्फ एक श्वासोच्छ्वास भर में क्षय कर डालता है।'' 'जैनधर्मामृत' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-“अज्ञानी साधक चिरकाल तक तप करते हुए भी अपनी आत्मा को कर्मों से बद्ध कर लेता है, सम्यग्ज्ञानी साधक बाह्यतप न करते हुए भी स्वयं को संयम और तप से आत्म-भावों को भावित करता हुआ कर्मबन्धनों से मुक्त करता रहता है।"२ जिन लौकिक कार्यों को करते हुए अज्ञानी जीव कर्मों का बन्ध करता रहता है, सम्यग्ज्ञानी जीव उन्हीं कार्यों को करता हुआ कर्मों की निर्जरा कर लेता है।" एक जैनाचार्य कहते हैं-“पापकर्मों से निवृत्ति और कुशल पक्ष (शुभ कर्मों) में प्रवृत्ति तथा विनय की प्राप्ति, ये तीनों ही बातें सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होती हैं।"३ 'भगवद्गीता' का कथन है-"ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन !" -ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को जलाकर खाक कर देती है। "नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।"-इस जगत् में ज्ञान के सदृश कोई पवित्र वस्तु नहीं है। "ज्ञानान्मोक्षस्ततोऽनन्त-सुख प्राप्तिन संशयः।"-निर्मल ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है; तत्पश्चात् निःसन्देह अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। ___'उत्तराध्ययनसत्र' में बताया है-“समग्र ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह
के सर्वथा त्याग से और राग-द्वेष के सम्यक् क्षय से (जीव) एकान्त सुखरूप मोक्ष "प्राप्त कर लेता है।"५
१. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा तं.-णाणट्ठयाए, दंसणट्ठयाए, चरित्तट्ठयाए, वुग्गहविमोयणट्ठयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीति कट्ठ।
-स्थानांग, स्था. ५, उ. ३, सू. २२४ २. 'जैनधर्मामृत' (पं. हीरालाल शास्त्री), अ. ३ के परिचय से भाव ग्रहण, पृ. १०० ३. पावाओ विणिवित्ती, पवत्तणा तह य कुसल पक्खंमि।
विणयम्स य पडिवत्ती तिन्नि वि नाणे समप्पिं ति॥ ४. भगवद्गीता, अ. ४, श्लो. ३५, ३८-३९ ५. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए।
रोगस्स दोसस्स उ संखए ण, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं॥
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