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* ३५२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८
या आशय व्यक्त करने से भी ज्ञान एवं ज्ञानी की आशातना होती है। अर्थात् वर्ण, पद, वाक्य को शुद्धिपूर्वक पढ़ना, अनेकान्तदृष्टि से शुद्ध अर्थ आशयपूर्वक पढ़ना। ___'ज्ञानाचार' के इन आठों ही अंगों का ध्यान रखकर अध्यात्मज्ञान प्राप्त करने . से उत्तरोत्तर कर्मनिर्जरा होती है। यह हुआ व्यवहारदृष्टि से ज्ञानाचार का प्रयोग।' निश्चय ज्ञानाचरण का लक्षण ___ ‘परमात्मप्रकाश' में निश्चयदृष्टि से ज्ञानाचार का लक्षण यों किया गया है“उसी निज (आत्म) स्वरूप में संशय, विपर्यय, विमोह, विभ्रम, अनध्यवसायरहित . जो स्व-संवेदन ज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि सम्यग्ज्ञान है, उसका जो आचरण यानी उस रूप परिणमन (निश्चय) ज्ञानाचार है।” 'द्रव्यसंग्रह टीका' में कहा गया है-“उसी शुद्ध आत्मा को (कर्मादि) उपाधिरहित स्व-संवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्यात्व-रागादि पर-भावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है, उस सम्यग्ज्ञान में
आचरण अर्थात् परिणमन निश्चय ज्ञानाचार है।'' दर्शनाचार : लक्षण और अंग
दर्शनाचार की विशुद्धि के लिए भी आठ अंग बताये हैं-(१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढ़दृष्टि, (५) उपबृंहण या उपगूहन, (६) स्थिरीकरण या स्थितिकरण, (७) वात्सल्य, और (८) प्रभावना।
इन्हीं आठ भेदों का उल्लेख ‘मूलाचार' में किया गया है। दर्शनाचार का अर्थ यहाँ व्यवहार-सम्यक्त्व का आचरण है। सम्यग्दर्शन व्यवहारदृष्टि से दो प्रकार का है-(१) देव, गुरु और धर्म तथा शास्त्र के प्रति अविचल श्रद्धा, (२) तत्त्वभूत (नौ) पदार्थों के प्रति श्रद्धान। सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल माना गया है। दृष्टि शुद्ध होती है, प्रत्येक वस्तु को सम्यक्प से ग्रहण कर सकेगा, अगर दृष्टि विकृत, अशुद्ध
और एकांगी है तो वह उसे मिथ्यारूप में ग्रहण करेगा। दर्शन (दृष्टि या श्रद्धा) मिथ्या है तो उसका ज्ञान भी मिथ्या होगा। इसीलिए सम्यग्दर्शन को शुद्ध रखने हेतु दर्शनाचार के ये ८ अंग बताये हैं। देव, गुरु, धर्म, शास्त्र, प्रवचन (भगवद्वचन) १. सुत्तं कम्हा वंजणं भण्णति? उच्यते-वंजतित्ति व्यक्तं करोति, जहोदणरसो वंजणसंयोगा व्यक्तो
भवति एवं सुत्ता अत्थो वत्तो भवति। एवं वंजणसामत्थातो, वंजणमिति वुच्चते सुत्त। सक्कय-मत्ता-बिन्दू-अक्खर-पय-भेएस वट्टमाणस्स आणाअणवत्थ-मिच्छत्त-विराहणा य भवंति। एवं सुत्तभेओ। सुत्तभेया अत्थभेओ, अत्थभेया चरणभेओ, चरणभेया अमोक्खो, मोक्खाभावा दिक्खादयो अफला भवंति।
-निशीथचूर्णि, गा. १७-१८ २. (क) तत्रैव संशय-विपर्यायानध्यवसाय-रहितत्वेन स्व-संवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकवुद्धिः
सम्यग्ज्ञानं। तत्र आचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः। -परमात्मप्रकाश ७/१३ (ख) तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधि-स्व-संवेदन-लक्षण-भेदज्ञानेन मिथ्यात्व-रागादि-परभावेभ्यः पृथक्-परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः।
-द्रव्यसंग्रह टीका ५२/२१८
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