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* ३४२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ 0
आत्मा के निजी चार गुणों में रमण करने, पर-भावों से विरत और स्वभाव में स्थित होने हेतु पंचाचार हैं
आत्मा के निज गुण या स्वभाव पहले कहे अनुसार ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति है। आत्मा के इस अनन्त चतुष्टयात्मक धर्म गुण अथवा स्वरूप को अपने स्व-भाव (निज गुण) में रखने, पर-भावों से विरत करने और स्वभावस्व-स्वरूप में स्थित करने-रमण करने हेतु पंचविध आचार का निर्देश किया गया है। आत्मा के निजी गुण = स्वभाव में आचरण करना ही धर्म है. . पर-भावों में रमण करना नहीं
वस्तुतः स्व-भाव में आचरण ही धर्म है। धर्म आचरण की वस्तु है। वह न तो अहंकार करने की वस्तु है, न अपने धर्माचरण का ढिंढोरा पीटने, दूसरों से ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, आसक्ति, मोह, वैर-विरोध करने की वस्तु है। आज के अधिकांश धर्म-सम्प्रदाय के लोग अपने तथाकथित धर्म के लिए दूसरों से लड़ेंगे-भिड़ेंगे, वाद-विवाद एवं पर-निन्दा करेंगे, अपने आप को उच्च कहलाने के लिए दूसरे धर्म-जाति-पंथ वालों को नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे, किन्तु अहिंसा-सत्यादि या आत्म-स्वभाव रमणादि धर्म का आचरण नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति में आत्मा के स्व-भाव के बदले राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय, द्रोह-मोह, ईर्ष्या-घृणा आदि विभावों और पर-भावों में रमण से पापकर्मबन्ध के सिवाय और क्या उपलब्धि होगी? धर्म बीज है, उसे आचरण में लाने से ही फलद्रुप वृक्ष की प्राप्ति होगी। अर्थात् धर्मरूपी बीज को बोने, उसकी सुरक्षा विषय-कषायादि विकारों से करने, उसको शुद्ध आत्म-भावों से सींचने से ही सर्वकर्मक्षयरूप मोक्षफल प्राप्त हो सकता है। इसी आत्म-धर्म की साधना के लिए ज्ञानादि पंचाचार हैं ____ यही कारण है कि ज्ञानादि पंच आचार जीवन में आचरण करने, जीवन को ज्ञानादि आचरणमय बनाने एवं ज्ञानादिमय जीवन जीने के लिए बताये गये हैं, ताकि आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक कर्मबन्ध के कारणभूत कषायों और राग-द्वेष आदि से विरत होकर आत्मा के अपने धर्म में स्थिर हो सके, उसके तन, मन, वचन, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियाँ आदि सब आत्म-धर्म की आराधना-साधना में लग सकें। ऐसे सम्यक्आचार के पाँच प्रकार
अतः भगवान महावीर ने 'स्थानांगसूत्र' में ऐसे सम्यकआचार के पाँच प्रकार बताये हैं। 'मूलाचार' में भी पंचविध आचार का उल्लेख है। वे इस प्रकार हैं
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