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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ॐ २९९
फलाकांक्षा, भोगाकांक्षा (निदान) से युक्त तप करने से सकामनिर्जरा (मोक्षलक्षी निर्जरा) नहीं होती। संसारवृद्धि ही होती है, ऐसे अज्ञानमूलक कामनामूलक तप से। 'सूत्रकृतांग' में स्पष्ट कहा है-उन साधकों का तप भी अशुद्ध व निष्फल जानना, जो महाकुलों से निष्क्रमण करके दीक्षित हुए हैं, पूजा-सम्मान-सत्कार के लिए तप. करते हैं, अतः जिस तप को करते हुए अन्य (गृहस्थादि) जाने नहीं और जिस तप को लेकर अपनी श्लाघा प्रशंसा न करे, वही तप शुद्ध-आत्म-हितकर समझना।'
__ ऐसे घोर पापकर्मबन्धक तपों से मुमुक्षु दूर रहे अतः मुमुक्षु साधक को उग्रतप करते समय पूर्वोक्त तपोजनित दोषों और अशुद्धियों को मोक्षमार्ग में बाधक समझकर उनसे तथा सिद्धियों, लब्धियों, प्रसिद्धियों आदि से दूर ही रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त आत्म-गुणघातक, संसार-वृद्धिकारक, अशुभ कर्मबन्धक तथा सद्गतिनाशक निम्नलिखित तपों से भी बचना चाहिए-(१) अज्ञान (बाल) तप, (२) आशीतप, (३) अकामतप, (४) निदानतप, (५) स्वार्थीतप, (६) कीर्तितप, (७) सरागीतप, (८) वेतालीतप, (९) श्रापीतप, (१०) क्लेशीतप, (११) मायीतप, (१२) आसुरीभावनातप। अज्ञान (बाल) तप के विषय में निर्जरा से सम्बन्धित निबन्धों में हम काफी प्रकाश डाल चुके हैं। किसी भी इहलौकिक धन, पुत्र, ऋद्धि, प्रसिद्धि, पद आदि की तथा पारलौकिक, देवलोक, दिव्यांगना, दिव्यसुखभोगादि की आशा से तप करना तथा लोगों को अपने प्रति आशा रखने का कहना आशीतप है। इहलोक, परलोक, कीर्ति आदि के लिए कृततप की फलाकांक्षा करना निदानतप है। आत्म-ज्ञान से रहित तथा आर्त्त-रौद्रध्यान से, द्वेष-दुर्भावना से, निराशा से, अभाव से सदा आत्मा का प्रज्वलित-पीड़ित रहना तामसीतप है। मंत्र, विद्या आदि के प्रयोग से किसी पर मारण, मोहन, उच्चाटन या मूठ आदि का प्रयोग करना, अपने किसी विरोधी या शत्रु पर द्वेषभाव रखकर उसका अनिष्ट करने हेतु तपोबल का प्रयोग करना अथवा किसी ग्राम, कुटुम्ब, कुल, जाति आदि का नाश करना या वैसा चिन्तन करना वेतालीतप है। श्रापीतप वह है, जिसमें तपोबल द्वारा किसी को श्राप दे देना।' कीर्ति, प्रसिद्धि के लिए माया, कंपट करके लोगों को तपस्या का ढोंग बताया, स्वादिष्ट गरिष्ट भोजन, वस्त्र, १. (क) द्वादशविधेन तपसा निदानरहितस्य निर्जरा भवति वैराग्यभावनातः निरहंकारस्य ज्ञानिनः।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. १०२ (टीका) (ख) पूजा-लाभ-प्रसिद्ध्यर्थं तपस्तप्येत योऽल्पधीः।
शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम्॥ विवेकेन विना यच्च तत्तपस्तनुतापकृत्।
अज्ञानकष्टमेवेदं. न भरि फलदायकम्। (ग) तेसिं पि तवो असुद्धो, निक्खंता जे महाकुला।
जें नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ८, गा. २४
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