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* मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार * ३३५ 8
मान्य हों। अमुक वेष, अमुक क्रियाकाण्ड या अमुक समाचारी वाले हों, उनके सिवाय. इतर-सम्प्रदाय-मान्य अन्य वेष, अन्य क्रियाकाण्ड या अन्य समाचारी अथवा वेष एक होते हुए भी क्रियाकाण्ड या समाचारी में जरा भी अन्तर हुआ तो उन गुरुओं को अश्रद्धेय मानें, उनके प्रति द्वेष, घृणा, निन्दा या विरोध प्रगट करें; धर्म भी अहिंसा-सत्य आदि आचरणात्मक न मानकर तथाकथित उपासनात्मक या क्रियाकाण्डात्मक माना जाये, मन्दिर, उपाश्रय या धर्मस्थान में जाकर अमुक क्रिया करने को ही धर्म माना जाये अथवा जप, तप, ध्यान आदि साधनाएँ भी प्रायः लौकिक कार्यसिद्धि-प्रयोजन के लिए धर्मनाम से की जाये, साम्प्रदायिक कट्टरता, मजहबी दीवानेपन को धर्म माना जाये, जीवन के समग्र क्षेत्रों में कर्मक्षय की दृष्टि से शुद्ध धर्म को कोई स्थान न दिया जाये, शास्त्र और शास्त्रों के अर्थ में भी अनेकान्तदृष्टि की उपेक्षा करके एकान्तदृष्टि से स्व-सम्प्रदाय-मान्य शास्त्र और उनका अर्थ माना जाये। इस प्रकार का दर्शनाचार वीतरागता या कर्ममुक्ति में साधक न होकर राग-द्वेषवर्द्धक तथा प्रायः कर्मबन्धकारक, कषायवर्द्धक बन जाता है। इसी प्रकार चारित्राचार के नाम पर केवल क्रियाकाण्डों को या साम्प्रदायिक कट्टरता बढ़ाने वाले नियमों को एक ही सम्प्रदाय में अमुक से बोलना, अमुक से नहीं, अमुक से मिलना, शास्त्र पढ़ना या साथ बैठना नहीं, इस प्रकार के संकीर्ण
और द्वेष-विरोधवर्द्धक, कर्मबन्धकारक, नियमों, उपासनाओं आदि को चारित्राचार के नाम से चलाने से अचारित्राचार का ही पोषण होता है। इसी प्रकार तपाचार के नाम पर प्रायः बाह्य तप, उपवासादि को ही महत्त्व देना, केवल अज्ञान से शरीर को सुखाना ही तपश्चरण माना जाये, कषायों और राग-द्वेषों के इच्छाओं-वासनाओं-कामनाओं के निरोधरूप वास्तविक तप को तथा सकाम कर्मनिर्जराकारक आभ्यन्तरतप को, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि को कोई महत्त्व न दिया जाय, आत्म-शुद्धि को भुलाकर, कर्मक्षय का लक्ष्य विस्मृत करके इहलौकिक-पारलौकिक लाभ या स्वार्थ, प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति आदि की प्राप्ति की दृष्टि से किया गया केवल बाह्यतप कर्मक्षयकारक वास्तविक तपाचार न होकर तपाचार हो जाता है। वैसे ही वीर्याचार के नाम पर अपने-अपने सम्प्रदायों अथवा अपने-अपने पंथों, मार्गों, मतों, सम्प्रदाय-उपसम्प्रदायों आदि की जाहोजलाली, प्रसिद्धि, तरक्की के लिए विभिन्न नामों से धर्मस्थान बनवाने, अन्य संस्थाएँ खड़ी करने आदि में अथवा दूसरे सम्प्रदायों की तरक्की, प्रसिद्धि, प्रचार आदि को रोकने में प्रायः शक्ति लगाई जाये या अपने अनुयायियों में दूसरे पंथ, मत, मार्ग, सम्प्रदाय आदि के अनुयायियों के प्रति कट्टरता, विरोध, असहयोग आदि की दुर्भावना भरने, भड़काने आदि में शक्ति लगाना वीर्याचार के नाम पर राग-द्वेषवर्द्धक आचार हो जाता है। आजकल प्रायः प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय में कट्टरता
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