________________
• ३३८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८
आध्यात्मिक लाभ बताते हुए यहाँ तक कह दिया-"आचार-शुद्धि से सत्त्व-शुद्धि होती है और सत्त्व-शुद्धि से चित्त एकाग्र हो जाता है, चित्त एकाग्र होने के बाद परमात्म-साक्षात्कार या मोक्ष का साक्षात् हो जाता है।'' 'मनुस्मृति' में कहा गया है“सभी प्रकार के तप का मूल आचार है।'' आदर्श सम्यक्आचार ही सर्वकर्ममुक्ति-प्रापक
आचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्यद्वार है। भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही आचार शब्द सदाचार का द्योतक रहा है। परन्तु जैनागमों में जिस आचार का कथन किया गया है, वह आत्म-गुणों का अथवा सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग के आचरण में पुरुषार्थ करने का द्योतक है, मोक्षाभिमुख या सर्वकर्ममुक्ति की दिशा में आचरण ही आचार है। इसलिए जिस पंचविध आचरण से सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त हो, वही सम्यक्आचार है, वही सम्यक्आचार यहाँ उपादेय है। आशय यह है कि जिस ज्ञानादि के आचरण से यानी सम्यग्ज्ञानादि को जीवन में क्रियान्वित करने से पूर्वबद्ध कर्म-परम्पराएँ नष्ट हों, नये आते हुए कर्मों का निरोध हो, वही आचार यहाँ आदर्श आचार माना गया है। “सागारधर्मामृत' में कहा है-"अपनी शक्ति अनुसार पवित्र सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाये, उसे आचार कहते हैं। आचारहीन व्यक्ति आदरणीय नहीं माना जाता
मनुष्य का विचार चाहे जितना उन्नत हो, वह सबके समक्ष तत्त्वज्ञान की ऊँची-ऊँची बातें बघारता हो, किन्तु विचारों के अनुसार आचार सम्यक् न हो तो वह भारतीय जन-जीवन में आदरणीय व्यक्ति नहीं माना जाता। विराट् सम्पत्ति, राजसत्ता, अनेक विद्याओं में पारंगत रावण सदाचारहीन होने से आदरणीय नहीं माना गया, उसे 'राक्षस' जैसे घृणास्पद शब्द से पुकारा गया। दुर्योधन, कंस ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि वैभव-सम्पन्न एवं सत्ताधीश होने के बावजूद अन्याय-अत्याचारमय जीवन होने से आचारहीन और घृणास्पद कहलाये!
१. (क) आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ! आचाराल्लभते कीर्तिं, पुरुषः प्रेत्य चेह च॥
-मनुस्मृति ४/१५२ (ख) आचारात् प्राप्यते विद्या। (ग) आचारात् फलते धर्ममाचारात् फलते धनम्।
आचाराच्छियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्॥ -महाभारत अनुशासनपर्व (घ) आचारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ चित्तैकाग्रता ततः साक्षात्कारः। (ङ) सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहः परम्।
-मनुस्मृति १/११ २. (क) वीर्याच्छद्धेषु तेषु ।।
-सागारधर्मामृत ७/३५ (ख) आचर्यते (मोक्षाभिमुखं आचरणं) इति आचारः।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org