________________
ॐ ३०२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
भी विषयों के परिणामों के चिन्तन से होने वाली विरक्ति सहायक है। अतः विषयों के प्रति निर्वेद (वैराग्य) के लिए निम्नोक्त पाँच अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ) करनी चाहिए-(१) दुःखरूपता भावना, (२) उच्छिष्टताभावना, (३) असारताभावना, (४) अतृप्तिभावना, और (५) पुनरावृत्तिभावना। इसके लिए अनित्यत्व आदि वारह भावनाएँ भी की जा सकती हैं। श्रद्धापूर्वक की गई अनुप्रेक्षाओं से विषयों के प्रति . आकर्षण, देहाभिमान, तप से इच्छा-निरोध आदि हो सकते हैं। विषयों का ज्ञान होने पर वेदन और विकार न आने दे
विषयों का इन्द्रियों से सम्बन्ध, उनमें इन्द्रियों की प्रवृत्ति, उनकी जानकारी. ' उनका रागादिपूर्वक आस्वादन और विकारोत्पत्ति; विषय-सेवन के ऐसे विभाग बनते हैं। इनके पृथक्-पृथक् कारण हैं। विषयों की जानकारी ज्ञान है। ज्ञान स्वयं विकार का जनक नहीं होता। ज्ञानबल से जब व्यक्ति मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष करता है, तब विकार और कर्मवन्ध होता है। ज्ञान, वेदन, विकार इन सब के भिन्नत्व को हृदयंगम कर लेने पर विकार की उत्पत्ति और उससे होने वाले आस्रव और बन्ध को रोका जा सकता है। अतः जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्यतावश किसी विषय का सेवन भी करना पड़े तो उसमें से वैषयिक वृत्ति, राग-द्वेषादि वैकारिक वृत्ति से मन को दूर रखे, ज्ञाता-द्रष्टा बना रहे, विषयों में प्रवृत्ति का संकोच करे। विषयों में खेलती हुई चंचल इन्द्रियों को उसमें से बलात् खींचकर सत्कार्यों-शुभ कार्यों में लगाये। जिनाज्ञा का चिन्तन स्मरण करके, इन्द्रियों को या आत्मा को विषयों के सेवन न करने का आदेश दे। . प्रत्येक कार्य में जिनाज्ञा तथा वीतराग आत्मा के आदेश का स्मरण करे ___ एकाग्र होकर प्रत्येक कार्य में “राग-द्वेष के विजेता आत्मा का क्या आदेश है ? मैं रागादि पर विजय प्राप्त करने के लिए चला हूँ, मुझे उनकी (जिनकी) आज्ञा माननी ही चाहिए। इस प्रकार बार-बार जिनाज्ञा के चिन्तन से स्वच्छन्दता मिटती है। साथ ही विषयों के सेवन न करने का पुनः-पुनः संकल्प करना चाहिए। इन्द्रियों को आदेश देना चाहिए कि तुम आत्मा के अधीन रहो।' .. विषय-सुखों की दुःखरूपता आदि का भी स्मरण करो
यह भी स्मरण करना चाहिए कि-(१) विषय-सुख अनादिकाल से अभ्यस्त है, आरोपित सुख है, अतः दुःखरूप ही है, (२) विषय-सुख पराधीन है, (३) विषयसुख में एकत्व की अनुभूति भ्रान्ति है। विषय त्रिकाल में जड़ हैं, जड़ कभी चैतन्य नहीं हो सकते। जड़-जन्य सुख चैतन्य के साथ एकरूप नहीं हो सकता। इस प्रकार बार-बार चिन्तन और अभ्यास से विषयों के साथ एकत्वानुभूति को तोड़ डालने से इन्द्रियाँ वशीभूत हो जाती हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org