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@ ३०६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
करते-करते चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के चतुर्थ पाये पर चढ़कर वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार अघातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्षगति , प्राप्त कर लेता है। यही कारण है कि उत्तम ध्यान शब्द प्रयोग किया है, जिसका फलितार्थ है-क्षपकश्रेणीगत उत्तर (श्रेष्ठ) शुक्लध्यान, उससे शीघ्र ही मोक्ष-प्राप्ति होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।' पाँचवाँ बोल-लगे हुए पापों की तुरन्त आलोचना करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय आलोचना से शीघ्र मुक्ति कैसे-कैसे ?
आलोचना प्रायश्चित्त नामक आभ्यन्तरतप का अंग है। पापभीरु साधक जव अपने द्वारा कृत पापों की यथाशीघ्र आलोचना कर लेता है तो उसके सिर से पापों का भार उतर जाता है, वह अपने आत्म-भावों में रमण करने लगता है, उसकी चेतना शीघ्र ही ऊर्ध्वारोहण करती हुई कषायों का सर्वथा क्षय करके क्षपक श्रेणी. पर आरूढ़ हो जाती है, फिर तो चार घातिकर्मों का क्षय, केवलज्ञान-केवलदर्शन
और अन्त में आयुष्यकर्म के क्षय के साथ ही शेष तीन अघातिकर्मों का क्षय होकर वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। . किन्तु शीघ्र आलोचना वही कर सकता है, जिसे काँटे की तरह पाप पीड़ा देता है, जिसे पाप के अस्तित्व की आप्तवचनों से, दुःख के अनुमान से, पाप की दुःखदता की प्रतीति हो, वही पाप से भीति पैदा करती है, अर्थात् पापों से संकोच, हानि की आशंका और पतन की सम्भावना आदि पापभीरुता के फलितार्थ हैं। पापों की भीति ही उसे अप्रमत्तता, प्रतिक्षण जागृति, सावधानी और शीघ्र आलोचना करने की प्रेरणा करती है। ___ जिन भावों, क्रियाओं और कर्मों के द्वारा आत्मा मलिन बनती है, उसे सर्वज्ञ आप्तपुरुषों ने पाप कहा है। पापकर्मबन्ध के कारणभूत तीन अंश हैं-तीव्र कषायों से रंजित भाव (परिणाम), उनसे प्रेरित त्रिविध योग-व्यापार (क्रिया) और उस क्रिया से आकर्षित (प्रविष्ट) अशुभ कर्मानव। फिर वह आत्मा से जुड़ जाता है, उससे पापकर्म का बन्ध होता है, जिसके दो अंश बनते हैं-अर्जित पापकर्म और फलभोग।
पूर्वोक्त पापहेतु और बद्धपाप को हम क्रियमाणपाप और कृतपाप कह सकते हैं। पाप के तीन स्तर हैं-संरंभ, समारंभ और आरम्भ। फिर प्रत्येक को मन-वचन-काया से करना, कराना और अनुमोदन करना, पाप चारों कषायों से १. (क) देखें-भगवतीसूत्र, श. ३, उ. ५ में पूर्वतप, उत्तरतप सम्वन्धी पाठ
(ख) 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. ८' में प्रश्नोत्तर १-३, ५, पृ. ४३०-४३३
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