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ॐ मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब? 8 ३२१ 8
प्रासुकभोजी मृतादी निर्ग्रन्थ : कौन भवान्तकारक, कौन भवभ्रमणकारी ? ___ 'भगवतीसत्र' में मृतादी (मडाई) निर्ग्रन्थों का वर्णन है। मडाई का अर्थ है-मृत = निर्जीव-प्रासक भोजन करने वाला। 'अमरकोश' के अनुसार अर्थ होता हैयाचितभोजी। एसे जिस प्रासुकभोजी या याचितभोजी मडाई निर्ग्रन्थ ने संसार का, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ (कृतार्थ = सिद्धप्रयोजन) नहीं हुआ, जिसका कार्य (करणीय) समाप्त नहीं हुआ, ऐसा मृतादी (अचित्त निर्दोष आहार करने वाला) अनगार पुनः मनुष्य-भव आदि (नारक-तिर्यंच-देवभव) भवों को प्राप्त करता रहता है, (किन्तु इसके विपरीत जिस मृतादी अनगार ने संसार का, संसार के प्रपंचों का निरोध कर दिया है, जिसका संसार क्षीण और व्युच्छिन्न हो गया है, जिसका संसार वेदनीय कर्म भी क्षीण और व्युच्छिन्न हो गया है, जो निष्ठितार्थ (कतकार्य) है, जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा मृतादी अनगार पुनः मनुष्य-भव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। (ऐसे) पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ को सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, पारंगत (संसार के पार पहुँचा हुआ), परम्परागत (अनुक्रम से संसार के पार पहुँचा हुआ), अन्तकृत्, परिनिर्वृत एवं सर्वदुःख प्रहीण कहा जा सकता है।'
- एषणीय आहारादि भोजी श्रमण निर्ग्रन्थ संसार पारगामी 'भगवतीसूत्र' में भगवान महावीर से एक प्रश्न पूछा गया है कि प्रासुक एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ क्या बाँधता है? क्या करता है? किसका चय या उपचय करता है ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा-प्रासुक एषणीय (निर्दोष) आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की दृढ़ बंधन से बद्ध प्रकृतियों को शिथिल करता है। उसे संवृत अनगार के समान समझना चाहिए। विशेष बात यह है कि ऐसा अनगार आयुकर्म को कदाचित बाँधता है, कदाचित नहीं बाँधता। वह अनादि अनवदन, दीर्घकालिक चातुर्गतिकान्त संसारारण्य को पार कर जाता है। पुनः प्रश्न पूछा गया है, वह किस कारणं से अनादि यावत् चातुरन्त संसाराटवी को पार कर जाता है ? समाधान किया गया-प्रासुक, एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ अपने आत्म-धर्म का उल्लंघन नहीं करता। आत्म-धर्म (आत्मौपम्य धर्म) का उल्लंघन न करने वाला वह श्रमण निर्ग्रन्थ पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक छही जीवनिकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके उपभोग में आता है, उसका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से वह यावत् संसार-कान्तार को पार कर जाता है। १. भगवतीसूत्र, खण्ड १, श. २, उ. १, सू. ८-९, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. १६७-१६८ २. वही,.खण्ड १, श. १, उ. ९, सू. २७, विवेचन, पृ. १५४
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