________________
ॐ मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब? * ३२५ *
विनिवर्तना, विविक्तशय्यासन-सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत् स्पर्शेन्द्रिय-संवर, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भाव-सत्य, योग-सत्य, करण-सत्य, मन-समाधारणता, क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सम्पन्नता वेदना-अध्यासनता और मारणान्तिक अध्यासनता। इन सभी गुणों का अन्तिम फल सिद्धि है।'
कालिक तीर्थंकरों द्वारा उक्त चारित्र गुणों से सम्पन्न सिद्ध-बुद्ध-मुक्त 'सूत्रकृतांगसूत्र' में त्रैकालिक तीर्थंकरों ने एक वाक्य में कहा-भिक्षुओ ! पूर्वकाल में भी जो (सर्वज्ञ) हो चुके हैं और भविष्य में भी जो होंगे, उन सभी सर्वज्ञों ने इन्हीं गुणों को मोक्षसाधन कहा है। काश्यगोत्रीय (भगवान ऋषभदेव एवं भगवान महावीर) के धर्मानुगामी साधकों ने भी यही कहा है-“मन-वचन-काया इन तीनों से प्राणियों का प्राणातिपात (हिंसा) न करे तथा स्वहित (कल्याण) में रत रहे, स्वर्गादि सुखों की वाञ्छा (निदान) से रहित संवृत होकर रहे। इस प्रकार (रलत्रय) की साधना से भूतकाल में अनन्त (चारित्रगुणों से युक्त) जीव सिद्ध-मुक्त हुए हैं, (वर्तमानकाल में हो रहे हैं) और भविष्य में भी अनन्त जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त
तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार : संसार-अरण्य से पार हो जाता है तीन स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार अनादि-अनन्त अतिविस्तीर्ण चातुर्गतिक संसार-कान्तार से पार हो जाता है। यथा-(१) अनिदानता (भोगों की प्राप्ति के लिए निदान न करने) से, (२) दृष्टि-सम्पन्नता (सम्यग्दर्शन. की प्राप्ति) से और योगवाहिता (शास्त्र-वाचन के साथ उपधान तपश्चरण अल्पनिद्रा, अल्पाहार, मितभाषण, विकथादि का त्याग) अथवा समाधि स्थायिता से।
एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा के सम्यक्पालन का फल ... एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को सम्यक्पालन करने से तीन ज्ञानों में से कोई एक ज्ञान प्राप्त होता है-(१) अवधिज्ञान, (२) मनःपर्यायज्ञान, और (३) केवलज्ञान। केवलज्ञान प्राप्त होने पर मोक्ष निश्चित है ही।
छठ-छठ (बेले-बेले) तप करने वाला वैशाली निवासी वरुण नाग श्रमणोपासक था, व्रतधारी था, जीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था, साथ ही वह कुशल योद्धा भी था। १. भगवतीसूत्र, खण्ड ३, श. १७, उ. ३, सू. २२, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ६२३ २. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. ३, गा. २०-२१ ३. स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. १, सू. ८८ ४.. वही, स्था. ३, उ. ३, सू. ३८९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org