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मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब ? ३१९
अनुत्तर विमान देवलोक में जाना पड़ा। सात लव परिमाण आयुष्य पूर्व (मनुष्य) भव में कम होनें से वे विशुद्ध अध्यवसाय वाले मानव भी मोक्ष में नहीं जा सके । '
आराधक श्रमण निर्ग्रन्थों और श्रमणोपासकों को उत्तम देवलोक या मोक्ष की प्राप्ति
यही कारण है कि शास्त्रकारों ने कई श्रमण निर्ग्रन्थों अथवा श्रमणोपासकों के लिए दो गतियाँ बताई हैं-( १ ) उत्तम देवगति, या (२) मोक्ष गति । 'स्थानांगसूत्र' में तीन मनोरथ द्वारा मन-वचन-काया को ओतप्रोत = भावित करने वाले श्रमण को महानिर्जरा और महापर्यवसान करने वाला बताया है - ( 9 ) कब मैं अल्प या बहुत श्रुत (शास्त्रों) का अध्ययन करूँगा ? (२) कब मैं एकलविहार प्रतिमा को अंगीकार करके विचरूँगा ? (३) कब मैं अपश्चिम - मारणान्तिक संलेखना की आराधना से युक्त होकर भक्तपान का परित्याग कर पादोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा ? इसी प्रकार श्रमणोपासक भी तीन मनोरथों से मन-वचन-काया को भावित = ओतप्रोत करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान करने वाला होता है-(१) कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का त्याग करूँगा ? (२) कब मैं मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊँगा ? (३) कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करके भक्तपान का परित्याग कर प्रायोपगमन संथारां स्वीकार मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा ??
इसी प्रकार 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है - पाँच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा (क्रमशः अंसंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करने वाला) और महापर्यवसान (जन्म-मरण का अन्त या संसार का सर्वथा उच्छेद) करने वाला होता है । यथा: अग्लानभाव से आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी और ग्लान (रुग्ण) मुनि की `वैयावृत्य करता हुआ। आगे के सूत्र में भी इसी प्रकार पाँच स्थानों से श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान करने वाला होता है - शैक्ष (नवदीक्षित) कुल, गण, संघ और साधर्मिक (समान समाचारी वाले) की वैयावृत्य करता हुआ ।
अन्नलायक श्रमण निर्ग्रन्थ को महानिर्जरा और महापर्यवसान की उपलब्धि 'भगवतीसूत्र' में एक जगह दो दृष्टान्तों द्वारा अन्नग्लायक को उपमित करके बताया गया है कि जिन अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थों ने अपने कर्म, यथा - स्थूल,
१. (क) स्थानांगसूत्र वृत्ति
(ख) भगवतीसूत्र. श. १४. उ. ७. सू. १२ / २ विवेचन ( आ. प्र. स.. ब्यावर ). पृ. ४०७ २. स्थानांगसूत्र, स्था. ३. उ. ४, सू. ४९६-४९७
३. भगवतीसूत्र, खण्ड १, श. ५, उ. ४, सू. ४४-४५, विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. ४६१-४६२
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