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* ३१८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ®
केवलज्ञान के बाद सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष होना निश्चित था।' आशय यह है कि संज्वलन-कषायी, उपशान्तमोही या उपशमश्रेणी के साधक को केवलज्ञान नहीं होता। केवलज्ञान क्षीणमोही को तथा क्षपकश्रेणी आरूढ़ को ही होता है। यही कारण है कि अनुत्तर विमानवासी देवों को 'भगवतीसूत्र' में क्षीणमोही या उदीर्णमोही न कहकर उपशान्तमोही कहा है। यदि वे क्षीणमोही होते तो उन्हें केवलज्ञान हो जाता। ___अब एक शंका और होती है-केवलज्ञान प्राप्त होते ही कई महान् आत्माओं को तो शीघ्र मुक्ति हो जाती है और कई महापुरुषों को यहाँ तक कि भगवान • महावीर जैसे तीर्थंकरों तक को भी शीघ्र मुक्ति प्राप्त नहीं होती, इसका क्या कारण है?
इसका समाधान यद्यपि पहले दिया जा चुका है। फिर भी संक्षेप में यह है कि मुक्ति के लिए चार घाति के अलावा चार अघाति इन आठों ही कर्मों का क्षय होना" अनिवार्य है। एक आयुष्य कर्म भी भोगना बाकी हो तो मुक्ति रुक जाती है, फिर जिन केवलियों ने पूर्व-भवों के शुभ या अशुभ (पुण्यरूप या पापरूप) जो भी कर्म बाँधे हैं, यदि वे निकाचित रूप से बन्ध न हों, फिर भी स्पृष्ट, बद्ध और निधत्त रूप से बद्ध हों और उन्हें संक्रमण या उत्क्रमण द्वारा परिवर्तितं किया गया है, संक्रमण या उत्क्रमण द्वारा परिवर्तित न किया गया है, संक्रमण द्वारा उनका स्थितिघात, रसघात न किया गया हो अथवा उदीरणा द्वारा या बाह्याभ्यन्तर तप, संयम, परीषह-सहन, उपसर्ग-विजय, महाव्रत, गुप्ति-समिति, चारित्र आदि द्वारा भोगकर क्षय न किया गया हो अथवा निकाचित बँधे हुए कर्मों को भी उदय में आने पर समभाव से भोगा न गया हो, तो केवलि-भगवन्तों को भी उस भव की स्थिति पर्यन्त उन भवोपग्राही चार पूर्वबद्ध अघातिकर्मों का भी फल भोगकर क्षय करना पड़ता है, वे जब तक पूर्णतया क्षय न हों अथवा आयुकर्म अल्पावधिक हो तो केवली समुद्घात द्वारा दूसरे कर्मों का समीकरण करके भोगना पड़ता है, इस कारण मुक्ति में विलम्ब होता है। सप्त लव कम आयु वाले मानव को भी सर्वार्थसिद्ध देवलोक में जाना पड़ा ___ इतना ही नहीं, धन्ना अनगार को मोक्ष प्राप्त हो जाता है और उनके गृहस्थ पक्ष के साले शालिभद्र मुनि को उत्कृष्ट करणी करने पर भी न तो केवलज्ञान होता है और न ही मोक्ष; शास्त्रकारों का कहना है कि लवसप्त आयु कम होने से उन्हें सर्वार्थसिद्ध
१. देखें-वाहुवली चरित्र त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १ २. अणुत्तरोववाइया णं भंते ! किं उदिण्णमोहा, उवसंतमोहा, खीणमोहा?
गोयमा ! नो उदिण्णमोहा, उवसंतमोहा, णो खीणमोहा। -भगवतीसूत्र, श. ५, उ. ४, सू. ३३
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