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ॐ ३०० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
सत्कार आदि के लिए तप का आडम्बर करना मायीतप है। ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा है-"जो साधक नग्न (द्रव्य से वस्त्ररहित, भाव से निष्परिग्रही) रहता है, शरीर को कृश कर लेता है, दीक्षित होकर मास-मास-खमण तप के अन्त में पारणा करता है, किन्तु जनसमूह को इकट्ठा करने, लोगों से पैसा बटोरने और प्रसिद्धि, पद या प्रतिष्ठा पाने हेतु माया-कपट (ठगबाजी) करता है या क्रोधादि कषाय करता है, वह भविष्य में अनन्त गर्भादिक दुःख पाता है, यानी अनन्त काल तक संसार-परिभ्रमण करता है।"
- जिस साधक का तप भव-परम्परा से रोष और अतिकलह से संसक्त है, जो निमित्त ज्ञान बताकर आजीविका करना है, जो दयारहित है, दूसरों को और स्वयं को अत्यन्त ताप देता है, वह आसुरी भावना से युक्त तप करता है।' जो तपस्वी नामाधारी गाँव-गाँव में, जाति-बिरादरी में, संघों में, कुटुम्बों में, गच्छ में समाज
और परिवारों आदि में परस्पर फूट डालता है, क्लेश जगाता है, वैरभाव रखता है, कलह-क्लेश कराता है, वैर-वृद्धि करता है, मलिन परिणामों से दूसरों का बुरा सोचता है, रात-दिन क्लेश में ही मन ग्रस्त रहता है। इस प्रकार क्लेश से युक्त होकर तप करता है, तागा करता है, उसका वह तप क्लेशीतप है।
इन और ऐसे सभी घोर पापकर्मबन्धक तपों से मुमुक्षु को दूरातिदूर रहना चाहिए। दूसरा बोल-पाँचों इन्द्रियों को वश करे, अन्तर्मुखी करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय
बाहर पर-भावों और विभावों, राग-द्वेष से प्रेरित होकर भटकती हुई इन्द्रियों और मन (नोन्द्रिय) को अन्तर्मुखी बनाना, उन्हें वश में करना-आत्मा की सेवा में लगाने से, आत्म-भावों में लगाने से महानिर्जरा होती है, इसे ही जैनागमों में प्रतिसंलीनतातप कहा है। सकामरूप महानिर्जरा होने से शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति सम्भव है।
इन्द्रियाँ पाँच हैं-श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श। इन पाँचों इन्द्रियों को पाँच विषयों का ज्ञान होता है। यथा-स्पर्श, रस (स्वाद), गन्ध, रूप और श्रवण। इन्द्रियाँ १. (क) अणुबंध-रोस-विग्गह-संसत्त-तवो णिमित्त-पडिसेवी विक्विवणिराणुतावी आसुरी भावणं कुणदि।
-भगवती आराधना, गा. ८८ - (ख) यः पुनः कीर्तिनिमित्तं माययामिष्ठभिक्षा लाभार्थं अल्पं भुक्ते भोज्यं, तस्य तपः निष्फलं द्वितीयम्।
___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (ग) जइ विय णगिणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो। जे इह माया विगिज्जई आगंता गब्भायणंतसो॥
-सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. २, उ. , गा. ९ २. 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. ८' से भाव ग्रहण, पृ. ४४३-४४६
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