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ॐ २३८
कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
आगमों की दृष्टि में परमात्मा की अनन्य-भक्ति की साधना । ___ 'अनुयोगद्वारसूत्र' में अनन्य-भक्ति का साधनासूत्र दिया गया है, जिसका भावार्थ इस प्रकार है-“परमात्मा की भक्ति के लिए भक्तिकर्ता का चित्त उसी (परमात्मा) में हो, मन उसी में लीन हो, उसकी शुभ लेश्या भी वहीं लगी हो, उसका अध्यवसाय भी वैसा ही हो, उसी में वह तीव्रता से समर्पित हो, उसी अभीष्ट परमात्म-स्वरूप में वह उपयोगयुक्त हो, उसी के प्रति उसके करण (बाह्यकरण तथा अन्तःकरण) प्रीतियुक्त अर्पित हों, वह उसी परमात्म-भाव की भावना से भावित हो।' 'आचारांगसूत्र' में भी भगवान महावीर या किसी भी वीतराग परमात्मा (जिनेन्द्र) के प्रति अनन्य-भक्ति के लिए इसी प्रकार का पाठ मिलता है। उसका भावार्थ है-'साधक समस्त आग्रहों-पूर्वाग्रहों का त्याग कर उसी (तीर्थंकर भगवान) की आज्ञाराधनारूप भक्ति में दृष्टि रखे, उसी परमात्म-स्वरूप में मुक्त मन से समर्पित या तन्मय हो, उसी परमात्मा को आगे रखकर विचरण करे, प्रवृत्ति करे, उसी के आदेश-निर्देश के अनुसार जीए, उसी (परमात्मा) के स्वरूप को सतत अपने चित्त, मन या स्मृति में रखे, उसी में उपयुक्त रहे, सदैव उसी परमात्मा के चरणों में दत्तचित्त होकर रहे या उसी का अनुसरण करे।” “(उसकी अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम) यह तुम्हारे मन में भी न हो।" वास्तव में अनन्य-भक्ति में परमात्म-भक्त साधक का तन, मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, अंगोपांग, इन्द्रियाँ आदि अपने प्रियतम परमात्मा में ही संलग्न रहें (इसके लिए तर्पणता, तन्मयता, तल्लीनता, तरलता और तत्समता के रूप में यहाँ पाँच तकारों का प्रयोग हुआ है), परमात्मा के सिवाय अन्यान्य विषयों में आसक्तिपूर्वक संलग्न न हों, वाणी से परमात्मा की ही स्तुति, स्तोत्र, स्तव, भक्ति-गीत, गुणोत्कीर्तन, प्रार्थना, भजन या नाम-स्मरण बोला जाए, मन से प्रभु के जीवन का, गुणों का, उनकी आज्ञाओं का, उनके प्रवचनों एवं आदेश-निर्देशों का चिन्तन-मनन-मन्थन किया जाए; इन्द्रिय-समूह एवं तन से उनको वन्दन, नमन, दर्शन, श्रवण, गुणोत्कीर्तन आदि प्रवृत्तियाँ की जाएँ; अथवा मन-वचन-काया से प्रभु की आज्ञा के विरुद्ध अथवा प्रभु द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों, मर्यादाओं एवं आदेश-निर्देशों के विरुद्ध न चला जाए, न बोला या सोचा जाए, न ही सुना या स्पर्श किया जाए, न ही मनन-चिन्तन, निर्णय या विचार किया जाए, न ही ऐसा कोई कार्य किया जाए जो प्रभु-आज्ञा के विपरीत हो। चित्तवृत्तियाँ तथा प्रवृत्तियाँ भी बाहर से हटाकर अन्तर्मुखी बनाई जाएँ, एकमात्र परमात्म-भक्ति में जमाई जाएँ। इस प्रकार की सर्वतोमुखी तन्मयता की, सम्यक श्रद्धामयी, स्वरूपज्ञानमयी एवं सम्यक् चारित्रमयी स्थिति ही अनन्य-भक्ति है।' इसे ही १. (क) तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झसिए. तत्तिव्वझवसाणे तट्ठिोवउत्ते, तप्पियकरणे, तब्भावणा-भाविए।
-अनुयोगद्वारसूत्र २८ (ख) तट्ठिीए, तम्मुत्तिए, तप्पुरक्कारे. तम्सण्णी तण्णिसेवणे।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ.५, उ. ६ (ग) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. २८३-२८४
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