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६ २४४ कर्मविज्ञान :
: भाग ८ ३
माहौल बनाना चाहिए, जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता す अभिवृद्धि हो । जैसे वन्दन पाठ में कहा गया है - " मैं तीन वार दाहिनी ओर प्रदक्षिणा करता हूँ। प्रभो ! आपको वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, आपक सत्कार और सम्मान करता हूँ। आप कल्याणमूर्ति हैं, मंगलमय हैं, देवरूप है ज्ञानमय हैं, आपकी मन-वचन-काया से पर्युपासना करता हूँ । मस्तक झुकाक वन्दन करता हूँ।” उपासनाकक्ष का वातावरण भी ऐसा हो कि वहाँ वैठते ही व्यक्ति पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ स्वयं को अनुभव करने लगे। उसके तन-मन-नयन में उत्कृष्टता की अनुभूति होने लगे ।
फिर पर्युपासना में केवल परमात्म- सान्निध्य की कल्पना ही नहीं, वैसी अनुभूति भी होनी चाहिए कि परम पितामह वीतराग परमात्मा मेरे समक्ष साक्षात् विराजमान हैं। भावनिष्ठा जब क्रियान्वित होती है, तभी उसे देखकर वैसी मनःस्थिति वनर्त है । किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर उससे अभ्यर्थना की जाती हैं, वैसे ही अभ्यर्थना परमात्मा के समक्ष की जाए । उसमें आत्म-शोधन और भावपूजन दोनों ही कृत्यों में इसी प्रकार की भावनिष्ठा अपेक्षित है।
इसके अतिरिक्त उपासना के समय मनःक्षेत्र पर परमात्मीय- चिन्तन ( या शुद्ध आत्मा का चिन्तन) घटाटोप की तरह छाया रहना चाहिए। अर्थात् उस समय शरीर से सम्बन्धित समस्याओं के चिन्तन तथा भौतिक आवश्यकताओं और समस्याओं अथवा पर-भावों और विभावों में उलझे रहने के कारण चित्त शान्त और सन्तुलित नहीं रह पाता, आत्म-सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने का समाधान नहीं सूझ पड़ता। इसलिए उस समय आध्यात्मिक जीवन के लक्ष्य और आत्मिक स्वरूप और निजी गुणों का चिन्तन ही प्रमुख रहना चाहिए । अतः आवश्यक है कि उपासना के समय हमारे मन में सांसारिक कामनाओं, भौतिक आकांक्षाओं या सांसारिक विषय - सुखों के विचारों की उथल-पुथल न आए। उपासना के समय में एक निर्धारित विचार पद्धति ही सामने रहे । भौतिक जीवन को उस समय पूरी तरह से भुला दिया जाए । उस समय केवल आत्मा का स्वरूप जीवन-लक्ष्य एवं परमात्मा के सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ भी न सूझे। यदि उतने समय तक भौतिक प्रभावों से रहित - कायोत्सर्गयुक्त ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में रहे और उसमें महाज्योतिर्मय परमात्मा के साथ समन्वित हो जाने की दीपपतंग जैसी आकांक्षा उठे तभी समझना चाहिए कि हमने पर्युपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया है। उस समय स्तवन, स्तोत्र या स्तुति पाठ वैसे ही ध्यानगत रहें ।'
१. 'अखण्डजयोति' से आशय ग्रहण
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