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* शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता २५५
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वास्तव में ‘स्याद्वादमंजरी' के अनुसार भावमोक्ष का लक्षण है - " आत्मा का स्व-स्वरूप में अवस्थान करना मोक्ष है ।" 'पंचास्तिकाय' के अनुसार - " जीव (आत्मा) का शुद्ध ( निश्चय) रत्नत्रयात्मक परिणाम भावमोक्ष है और उक्त भावमोक्ष के निमित्त से जीव और कर्मों के प्रदेशों का निरवशेष रूप से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है।" इसे ही दूसरे शब्दों में 'नयचक्र' के अनुसार - "आत्म-स्वभाव से मूल व उत्तर कर्मप्रकृतियों के संचय का छूट जाना मोक्ष है ।" "
मोक्षपुरुषार्थी-साधक की शीघ्र सफलता के सूत्र
तात्पर्य यह है कि मोक्ष में पुरुषार्थ करने वाले साधक को 'पंचास्तिकाय वृत्ति' के अनुसार - "विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण वाले जीव (आत्म) का स्वभाव में अवस्थान करना ही मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करना है।” ऐसा मोक्षपुरुषार्थी स्वभाव और पर-भाव तथा आत्म-भावों और विभावों का सम्यक्विवेक, यथार्थ विश्लेषण एवं सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके पर भावों का केवल ज्ञाता - द्रष्टा होकर तथा विभावों से यथाशक्ति दूर रहने का पुरुषार्थ करता रहता है। साथ ही वह 'परमात्मप्रकाश' के अनुसार- अपने आत्मा को ही देखता है, जानता है, ( आत्म-स्वभावानुरूप) आचरण करता है, वही विवेकी ज्ञान- दर्शन - चारित्ररूप में परिणत जीव मोक्ष (पुरुषार्थ) का सफल कारण बनता है। उसके मन में, बुद्धि में, हृदय में, चित्त में सोते-उठते-बैठते-जागते, खाते-पीते सदैव सर्वथा मोक्ष ही स्मृति - पथ पर रहता है । मोक्षपुरुषार्थी की आत्मा मोक्ष के भावों से सदा भावित रहती है। जैसे कि आगमों में यत्र-तत्र मुमुक्षु आत्मार्थी साधकवर्ग के लिए कहा गया है - " संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।" ( वह साधक संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विहरण करता है ।) संयम और तप दूसरे शब्दों में संवर और निर्जरा, मोक्षपुरुषार्थ में शीघ्र सफलता के लिये आवश्यक हैं, क्योंकि ये शुद्ध आत्म-धर्म के अंग हैं।
१. (क) स्वरूपावस्थानं हि मोक्षः ।
(ख) कर्म-निर्मूलनसमर्थः शुद्धात्मोपलब्धिरूप जीवपरिणामो भावमोक्षः । भावमोक्षनिमित्ते न जीवकर्म-प्रदेशानां निरवशेषां-पृथक् भावो द्रव्यमोक्षः ।
- पंचास्तिकाय ता. वृ. १०८/१७३/१० (ग) जं अत्तसहावादो मूलोत्तर - पयडि - संचियं मुच्चइ, तं मुक्खं अविरुद्धं ।
- नयचक्र वृ. १५९
२. (क) ततः स्थितं विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-लक्षणे जीवस्वभावे निश्चलावस्थानं मोक्षमार्गः इति । - पंचास्तिकाय ता. वृ. १५८/२२९/१२
(ख) पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पर जो जि । देस णाणु चरितु, जिउ मोक्खहं कारणं सो जि॥
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- स्याद्वाद-मंजरी ८/८६/१
- परमात्मप्रकाश, मू. २/१३
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