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२९२ कर्मविज्ञान : भाग ८
त्याग ( या संचय) करता है ?" उत्तर है- " गौतम ! वह श्रमणोपासक जीवित ( जीवन-निर्वाह के कारणभूत - जीवितवत् अन्नादिद्रव्य) का त्याग करता है; दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है, दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है, बोधि (सम्यग्दर्शन) का बोध प्राप्त ( अनुभव) करता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है। इस सूत्र का फलितार्थ देते हुए वृत्तिकार कहते हैं - उक्त सुपात्रदानी श्रमणोपासक को ८ प्रकार के लाभ होते हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) अन्न-पानी देना - जीवनदान देना है। अतः वह जीवन का दान (त्याग)
करता है।
(२) जीवित की तरह दुस्त्याज्य अन्नादि द्रव्य का दुष्कर त्याग करता है ।
(३) त्याग का अर्थ अपने से दूर = विरहित करना भी है। अतः वह जीवित की तरह जीवित को यानी कर्मों की दीर्घ स्थिति को दूर करता ह्रस्व करता है। (४) दुष्ट कर्म द्रव्यों का संचय दुश्चय है, उसका त्याग करता है। (५) फिर अपूर्वकरण द्वारा ग्रन्थिभेदरूप दुष्कर कार्य करता है। (६) इसके फलस्वरूप दुर्लभ अनिवृत्तिकरणरूप दुर्लभ वस्तु को उपलब्ध करता है, अर्थात् चय = उपार्जन करता है।
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(७) तत्पश्चात् बोधि का लाभ चय = उपार्जन = अनुभव करता है।
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(८) तदनन्तर परम्परा से सिद्ध - बुद्ध-मुक्त होता है, यावत् समस्त कर्मों दुःखों का अन्त कर देता है ।" "
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इसी प्रकार श्रमण या माहन को प्रासुक ऐषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासक को एकान्त निर्जरा का लाभ भी बताया है। अन्यत्र यह भी बताया गया है कि अनुकम्पा, अकामनिर्जरा, बालतप, दान-विशेष एवं विनय से बोधिगुण- प्राप्ति का लाभ बताया है तथा कई जीव (सुपात्रदान के प्रभाव से ) सर्वकर्म-विमुक्त होकर
१. (प्र.) समणोवासएणं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण- खाइम- साइमेणं पडिला भेमाणे किं लभति ?
( उ ) गोयमा ! समणोवासएणं तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलभति ।
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(प्र.) समणोवासएणं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलाभेमाणे किं चयति ? (उ.) गोयमा ! जीवियं चयति, दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लभं लभति, बोहिं बुज्झति ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ।
- व्याख्याप्रज्ञप्ति विवेचन ( आ. प्र. समिति, ब्यावर), श. ७, उ. १, सू. ९-१०
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