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* २९० 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
हिंसा कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे ?
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए जीवहिंसा मुमुक्षु साधक के लिए वर्जनीय है। किसी के प्राणों को नष्ट कर देना, क्षति पहुँचाना प्रमादयोग से ही हो सकता है। अतः प्रमादयोग से प्राणनाश करना हिंसा है। जिसमें किसी भी प्रकार की इच्छा होती है. वही अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए प्रमाद में लीन होता. कर्मबन्ध करता है। जैनागमों में महती इच्छा वाले को महारम्भी और अल्प इच्छा वाले को अल्पारम्भी कहा गया है। जो इच्छा से रहित, निःस्पृह निष्कांक्ष और निरीह होता है, वह अनारम्भी होता है। इसलिए जीवहिंसा से विरतं होने के लिए : इच्छा का त्याग करना चाहिए। इस अतिरिक्त द्रव्यहिंसा और भावहिंसा का भी विवेक करना चाहिए। केवल द्रव्यहिंसा हो या न हो, भावहिंसा होने से ही हिंसाजन्य पापकर्मबन्ध हो जाता है, क्रोधादि विभावजन्य परिणाम आये कि भावहिंसा हो गई। जीवरक्षा के अमोघ उपाय और भाव
जीवों की रक्षा के लिए समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् भाव होना चाहिए। दूसरे प्राणी को कष्ट पहुँचाना, त्रस देना, डराना, धमकाना, बंद कर देना, गला . घोंट देना, गुलाम बनाकर रखना आदि सबको भगवान महावीर ने अपने आप को कष्ट पहुँचाना, त्रस देना आदि कहा है। किसी के प्राणों को नष्ट करने से अपनी ही हानि होती है। इसके अतिरिक्त दूसरों को दुःखी देखकर उनके दुःख को अपना दुःख जानकर और दुःख दूर करने की इच्छा रखना अनुकम्पा और दया है। किसी की पीड़ा से हृदय का द्रवित होना अनुकम्पा का भाव है। निःस्वार्थभाव से किसी दुःखित प्राणी पर दया करना कर्मक्षयकारिणी हो सकती है। दया-पालन के लिए निःस्वार्थ-निष्कामभाव के साथ उपयोगयुक्त चित्त, उल्लास. हृदय में प्रसन्नता. दया स्व-पर के लिए उपकारिणी है, इस कृपाभाव से युक्त होना आवश्यक है। आत्मा कब हिंसारूप बन जाती है, कब अहिंसारूप ? - वस्तुतः देखा जाये तो निश्चयनय से पुद्गल की-पर-द्रव्यों की चाह से. पर के या विभाव के आलम्बन से या पर-भावों या विभावों में रमणं से आत्म-गुणोंभाव-प्राणों की घात होती है, अतः पर में रयमाण आत्मा ही हिंसारूप बन जाता है. स्व में रयमाण आत्मा ही अहिंसारूप है. इस भाव को लेकर समस्त जीवों के प्रति आत्म-भाव की उत्कटता होने से भावदयारूप होकर सर्वजीवरक्षा सर्वकर्ममुक्तिम्प मोक्षदायिनी बन सकती है। जीवरक्षा के लिए उत्कृष्ट करुणाभाव से सर्वकर्ममुक्त होने वाले
कई वार जव जीवों की रक्षा के लिए अपने शरीर की चिन्ता वा पग्वाह नहीं करते हुए महान् करुणाशील साधक स्वकीय प्राणां का त्याग कर देते हैं. वे उक्त
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