________________
४ २९४ कर्मविज्ञान : भाग ८
" श्रेष्ठ कार्य किसने किया ?” राजा ने इसका न्याय करने के लिए श्रेष्ठिपुत्र (चोर) को वुलाकर उसे निर्भय करके पूछा - "बताओ, तुम्हारे लिए किस रानी जी ने श्रेष्ठ कार्य किया ?” उसने कहा - " यों तो तीनों रानियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से किया है, परन्तु पहली दोनों रानियों ने जव मेरे आतिथ्य के लिए इतना व्यय किया, उस समय मेरे सिर पर मौत मँडरा रही थी, इसलिए मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मगर छोटी रानी साहिबा ने भले ही मुझे सादा भोजन करवाया, परन्तु इन्होंने जो मुझे मृत्यु के भय से मुक्त करवा दिया, इससे मुझे बड़ा आनन्द आया । अव मैं अपना जीवन निष्पाप बिताऊँगा । मेरे दोनों भव इन्होंने प्रतिज्ञाबद्ध करके सुधार दिये। इसलिए छोटी रानी जी ने मुझे अभयदान देकर सर्वोत्कृष्ट कार्य किया है।"
इसी प्रकार शाप आदि से या दुःख देने या दुःख के कारणों को उत्पन्न करने से जीव भयभीत हो जाता है। राजा संयंती को एक हिरण का वध करने पर महामुनि गर्दभाली से शाप का भय पैदा हो गया । करुण पश्चात्ताप के स्वर में उसने मुनि से क्षमा की प्रार्थना की, तब मुनि ने कहा - " राजन् ! मैं तुम्हें अभय करता हूँ, तुम भी तो अभयदाता बनो। क्यों निर्दोष प्राणियों की हिंसा में रक्त होकर भयदाता बने हो ?” राजा संयंती षट्जीवनिकाय की रक्षा का व्रत लेकर श्रेष्ठ अभयदाता बन गया। इसी प्रकार किसी को बुराइयों, दुर्व्यसनों, पापबन्धकारक अठारह पापस्थान का त्याग कराना तथा आर्त- रौद्रध्यान का निवारण कराकर धर्मध्यान और संयम के पथ पर चढ़ाना, मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं का व्यवहार करके दिल से भय की वृत्ति निकाल देना भी अभयदान के रूप हैं । '
कई आचार्य इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय अकस्मात्भय, आजीविकाभय, अपयशभय और मरणभय; इन सातों भयों में किसी के किसी भी भय का युक्ति, सूक्ति और अनुभूति से निवारण करना भी अभयदान कहते हैं। अभयदान का पुरुषार्थ जीव को महानिर्जरा और अन्त में सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष का अर्जन करा देता है।
मोक्ष के चतुर्थ अंग सम्यकूतप के सन्दर्भ में सात बोल
पहला बोल - (मोक्षदृष्टि से) उग्रतप करे तो जीव वेगो - वेगो मोक्ष में जाय
किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए तीव्र भावना और लक्ष्य में एकाग्रता व अनन्यता होनी चाहिए। शीघ्र मुक्ति प्राप्ति के लिए भी तीव्र मुमुक्षा, अप्रमत्त और अविरत रहकर सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के लक्ष्य में एकाग्रता और अनन्यतापूर्वक एकमात्र आत्म शुद्धि की दृष्टि से तीव्र और उग्रतप अपेक्षित है।
१. . (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण
(ख) सूत्रकृतांग, श्रु. १, वीरस्तुति के विवेचन से भाव ग्रहण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org