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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता 2 २५७ 8
है ? विना योग्यता के और बिना सोचे-समझे, देखादेखी, अन्ध-विश्वास से प्रेरित होकर अपनी शक्ति और क्षमता के पहचाने बिना मोक्ष के लिए अव्यवस्थित ढंग से, विना क्रम के, विना ज्ञान के पुरुषार्थ करने से मोक्ष प्राप्त होना बहुत ही दुष्कर है। पंचवस्तुक' नामक ग्रन्थ में मोक्ष-प्राप्ति के लिए क्रमशः पन्द्रह बातों का होना सर्वप्रथम अनिवार्य बताया है।' मोक्ष के वे पन्द्रह अंग (उपाय) क्रमशः इस प्रकार हैं
(१) सत्व (जंगमत्व)-अनादिकाल से जीव चार गति और चौरासी लाख जीव योनियों में परिभ्रमण करता आ रहा है। उसमें निगोद आदि के जीव या अभव्य जीव मोक्ष प्राप्त करने के बिलकुल अयोग्य हैं। पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव भी स्थावर अवस्था में मुक्ति पाने के योग्य नहीं हैं। वे स्थावर अवस्था को छोड़कर दुर्लभ त्रस अवस्था को प्राप्त करने पर उनमें से अमुक जीव ही मोक्ष-प्राप्ति के किंचित् योग्य बनते हैं। इसलिए मोक्ष-प्राप्ति के पन्द्रह अंगों में पहला अंग है त्रसत्व या जंगमस्व-निगोद तथा पृथ्वीकायादि को छोड़कर द्वीन्द्रियादि त्रसत्व अवस्था को प्राप्त त्रस जीव जंगम कहलाते हैं। बहुत थोड़े जीव स्थावर अवस्था से त्रस अवस्था को प्राप्त करते हैं।
(२) पंचेन्द्रियत्व-जंगम अवस्था प्राप्त करके बहुत-से जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय होकर ही रह जाते हैं। मोक्ष के लिए पंचेन्द्रियत्व प्राप्त होना अनिवार्य है, जिसे प्राप्त करना बहुत कठिन है।
(३) मनुष्यत्व-पंचेन्द्रिय अवस्था प्राप्त करके भी बहुत-से जीव नरक तिर्यञ्च देव आदि गतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं, जहाँ मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्ष-प्राप्ति के लिए मनुष्य-भव मिलना अत्यावश्यक है। आद्य शंकराचार्य ने भी विवेक चूड़ामणि में आत्मा के मोक्ष हेतु पुरुषार्थ करने पर जोर देते हुए कहा हैजो व्यक्ति कथंचित् दुर्लभ मनुष्य-जन्म, उसमें भी पुरुषत्व और शास्त्र-श्रवण का योग पाकर भी जो मूढ़ बुद्धि वाला मनुष्य स्वात्म-मोक्ष के लिए पुरुषार्थ नहीं करता है, वह आत्म-हन्ता है और असदाग्रह से स्वयं का विनाश कर बैठता है। आशय यह है कि देवदुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर मोक्षपुरुषार्थ करना चाहिए। . (४) आर्यदेश-मनुष्य-भव प्राप्त होने मात्र से मोक्ष-प्राप्ति नहीं होती। बहुत-से ऐसे जीव जो अनार्य, म्लेच्छ या धर्मविहीन क्षेत्रों में जन्म लेते हैं, वहाँ उन्हें धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिये मनुष्य-भव में भी आर्यदेश का मिलना कठिन है।
१. (क) पंचवस्तुक, गा. १५६-१६३ ... (ख) जैनसिद्धान्त वोल संग्रह. भा. ५, वोल ८५० २. लब्ध्या कथंचिन्नरजन्म-दुर्लभं, तत्रापि पुंस्त्वं श्रुति-पारदर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधी, स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात्॥ -विवेक चूड़ामणि ४
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