________________
ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र @ २८७ नहीं। क्षमा से और समभावपूर्वक सहन करने से ऐहिक और पारलौकिक शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। छठा बोल-कषाय को पतली करके निर्मूल करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय
मोक्षपथिक के लिए कषाय-त्याग जरूरी जो मुमुक्षु है, तपस्वी भी है, शास्त्रज्ञ भी है और वैयावृत्य-परायण भी है, वह यदि क्रोधादि कषायों को त्यागने, उन्हें मन्द करने, उन पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास नहीं करता, कषाय-त्याग की भावना भी नहीं रखता, उसकी समस्त धर्म-क्रियाएँ संवर, निर्जरा और मोक्ष की हेतु न बनकर, कर्मबन्ध और संसारवृद्धि की हेतु बनती हैं। यों तो जीवन ने असंख्य बार चारित्र की आराधना की, परन्तु कषाय-त्याग की भावना जगी ही नहीं, उसे कषाय विभावरूप लगे ही नहीं। यदि अन्तरंग की गहराई से श्रद्धापूर्वक कषाय-त्याग की भावना से चारित्र-पालन करता तो उसकी आत्मा शुद्ध, निर्विकार चैतन्यरूप हो जाती और मोक्ष के निकट पहुँच जाती। जिनेश्वर भगवान ने “कषायों को पुनर्भव के मूल को सिंचन वाले" कहा है। अतः कषाय आत्मा के निजी गुणों की घात करने वाले हैं, मोक्ष के पथिक को इनको भलीभाँति जानकर त्याग करना ही हितावह है। ___ कषाय का स्वरूप क्या है? इसके मुख्य कितने प्रकार हैं ? इसके अवान्तर भेद कितने हैं ? ये चारों कषाय किस-किस प्रकार से जीव के निजी गुणों पर आक्रमण करते हैं, प्राणी कषाय के वशीभूत होकर अपने चारित्र को कैसे-कैसे खो बैठता है
और पुनः-पुनः संसार में परिभ्रमण करता है ? कषायों को मन्द करने, पतले करने, वश में करने तथा उन्हें निर्मूल करने के क्या-क्या उपाय हैं ? कौन-सा कषाय किस गुणस्थान तक, किस रूप में रहता है ? कषायों से मुक्ति ही वास्तव में सर्वकर्ममुक्ति है। इन सब तथ्यों का विस्तार से प्रतिपादन हम अकषायसंवर' से सम्बन्धित निबन्ध में कर आये हैं। .. . कषायविजय एवं कषायक्षय के लिए विभिन्न द्वार निर्देश
आगमों में यत्र-तत्र यह निर्देश किया गया है कि किसी भी वस्तु का त्याग करना हो, उससे विरत या निवृत्त होना हो तो ज्ञपरिज्ञा से उसके विषय में पूर्णतया जानना चाहिए और फिर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका त्याग करना चाहिए या उससे विरत होना चाहिए। कषायों से निवृत्त या विरत होने के लिए सर्वप्रथम उनके स्वरूप का, उसके अंगोपांगों का ज्ञान आवश्यक है। 'मोक्खपुरिसत्थो' में कषाय शत्रुओं से मुक्ति पाने तथा उन्हें कश करने के लिए आठ द्वारों का निर्देश किया गया है-(१) स्वरूप चिन्तन, (२) (अपने में उसके अस्तित्व का) निरीक्षण, (३) हानि पश्यना, (४) हेयत्व पश्यना, (५) अनुपादेयता पश्यना, (६) अनात्मता पश्यना, १. देखें-विस्तृत विवरण के लिए 'अकषायसंवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन' शीर्षक निबन्ध .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org