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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र * २८५ *
से ग्रस्त हो तो व्यक्ति प्रायः आर्तध्यान में समय बिताता है। यद्यपि कायवल वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होता है, फिर भी कई लोग, व्यायाम, प्राणायाम और यौगिक क्रियाओं से प्रयत्न द्वारा, अभ्यास द्वारा, ऊर्जाशक्ति, प्राणशक्ति, मनःशक्ति और शरीरशक्ति अर्जित कर लेते हैं। कई लोग युद्ध की दृष्टि से, शारीरिकशक्ति बढ़ाते हैं। कई लोगों की भुजाओं में बड़ा बल होता है, वे अतिभारोत्तोलन कर लेते हैं। जिस किसी प्रकार से, कायबल प्राप्त हो, अधिकांश व्यक्ति गर्वम्फीत होते हैं, उनकी कायचेष्टाएँ अकड़ भरी होती हैं। वे शरीरवल पाकर अहंकारवश दूसरों से नफरत करने लगते हैं, दुर्बलों को सहायता देने, कर्मयोगी श्रीकृष्ण जी की तरह वृद्धों को सहारा देने तथा अशक्तजनों को क्षमा करने, रुग्णों की सेवा करने के बजाय उनको कष्ट देते हैं, सताते हैं, उन पर कहर बरसाते हैं। दूसरे लोगों की तो जरा-सी स्खलना, गलती या भूल होने पर वे उनको कठोर दण्ड देते हैं, गाली-गलौज करते हैं, परन्तु अपने कुटुम्बीजनों में से किसी की जरा-सी गलती होने पर उसे मारते-पीटते, धमकाते हैं, अंग-भंग कर डालते हैं। परन्तु मुमुक्षु आत्मार्थीजन जानते हैं कि शरीरशक्ति या बाहुबल वीर्यान्तरायकर्म तथा नामकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है, अतः उससे दूसरों की सेवा करते हैं। दूसरों की गलती, स्खलना या क्षति होने पर अहंकार या रोषवश उसे दबाते-सताते नहीं, अपितु उसे क्षमा करके प्रेम से सुधारते हैं। उन्मत्त अहंकारी मानव का देहबल अनर्थकारक होता है, जबकि शान्त मानव का देहबल बाहुबली मुनि की तरह संयम-साधना में लगाते हैं, दुर्बलों को सहारा देते हैं। क्षमाशील सबल आत्मा अपने बल का उपयोग दूसरों की सेवा, सुरक्षा, साधना, त्याग-तपस्या आदि में लगाता है। क्षमाशील कायबली मुमुक्षु आत्माओं के लिए आधार रूप होता है, वह मोक्षमार्ग की साधना करके मोक्षसुख को प्राप्त करता है। ‘आचारांगसूत्र' के अनुसार-“वह अपने श्रोत्र, नेत्र, घ्राण, जिह्वा एवं स्पर्श इन्द्रियों के प्रज्ञान के अपरिहीन होने तक दूसरों की वैयावृत्य, विनय आदि में लगाकर आत्म-हित की दृष्टि से उनका सम्यक् उपयोग करता है।"
(३) जनशक्ति भी बहुत बड़ी शक्ति है। जनसमूह का अपने पक्ष में होना जनशक्ति है। ‘आचारांगसूत्र' में इसके कई प्रकार बताये हैं, जैसे-ज्ञातिबल, मित्रबल, प्रेत्यबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, कपणबल और श्रमणबल इत्यादि। ये और इस प्रकार के विभिन्न जनबलों को व्यक्ति भय से, प्रलोभन से, स्वार्थसिद्धि से, बड़प्पन के अहंकार से अपने अधीन करके दूसरों की १. (क) जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा, जाव णैत्तपण्णाणा अपरिहीणा, जाव घाणपण्णाणा
अपरिहीणा, जाव जीहपण्णाणा अपरिहीणा, जाव फासपण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेतेहिं विरूबरूवेहिं पण्णाणे हिं अपरिहोणेहिं आयटुं सम्मं समणुवासेन्जासि।
-आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ.१, पृ. ६८
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