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ॐ २७२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
इस प्रकार मोक्ष के पूर्वोक्त चारों अंगों के कुल मिलाकर १९ बोल शीघ्र . मोक्ष-प्राप्ति के सूत्र हैं। सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में प्रथम महत्त्वपूर्ण बोल : मोक्ष की इच्छा
शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए मोक्ष के प्रति श्रद्धा, निष्ठा और भावना से सम्बन्धित प्रथम बोल है
___ “मोक्ष की इच्छा राखे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय।"
इस सन्दर्भ में मोक्ष क्या है? उसकी इच्छा क्या है ? मोक्ष की इच्छा का प्रासंगिक फलितार्थ व फल क्या है? मोक्ष की इच्छा संवेग के रूप में, मोक्ष की इच्छा और अन्य इच्छाओं में अन्तर, मोक्ष की इच्छा के अन्तरंग हेतु, मोक्षपुरुषार्थ में सफलता के लिए मोक्ष की तमन्ना, अनुप्रेक्षा या भावना आवश्यक है। पूर्णतः मोक्ष कब प्राप्त होता है ? इन सब बातों पर विचार करने से मोक्षपुरुषार्थ में सफलता प्राप्त हो सकती है। मोक्ष और उसकी इच्छा : क्या, क्यों और कैसे ? '
जैसा कि पहले कहा गया है--व्यवहारदृष्टि से समस्त कर्मों का सदा के लिए क्षय हो जाना मोक्ष है और निश्चयदृष्टि से स्व-स्वरूप में अवस्थित हो जाना मोक्ष है। अतः कर्मों से, कर्मबन्ध के कारणों से और कर्मों तथा कर्मबन्ध के हेतुओं से निर्मित अवस्थाओं से जो सदा-सदा के लिए विमुक्त हैं, वे मुक्त (सिद्ध) जीव हैं। इस दृष्टि से कर्म, कर्मबन्ध कारणों तथा कर्मजनित' अवस्थाओं से सदा के लिए छुटकारा पाना मोक्ष का स्वरूप है और कर्म आदि से छुटकारे की चाह ही मोक्ष की इच्छा है, उसे ही दूसरे शब्दों में मुमुक्षा या संवेग आदि कहते हैं। मोक्ष की इच्छा आदि के तीन रूप होते हैं
(१) कर्मों से सर्वथा मुक्त होने की इच्छा, (२) जन्म-मरण के चक्र (भवपरम्परा) से छुटकारा पाने की इच्छा, और (३) कर्मबन्ध के कारणों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग अथवा राग-द्वेष-मोह, काम आदि अन्तरंग आवेशों) से छुटकारा पाने की इच्छा। ऐसी त्रिविध मुमुक्षा मोक्ष की इच्छा का व्यावहारिक रूप है। मोक्ष की इच्छा लोकोत्तर होने से कथंचित् उपादेय
सिद्धान्त की दृष्टि से देखा जाये तो इच्छा लोभकषाय या राग का रूप होने से त्याज्य है, क्योंकि अभिलाषा, चाह, एषणा, गृद्धि, लालसा, कामना, कांक्षा, वांछा, अभिध्या, प्रार्थना (माँग) आदि वस्तुतः इच्छा के ही रूप हैं। किन्तुं यहाँ मोक्ष की इच्छा साधारण या लौकिक इच्छा नहीं है, अपितु लोकोत्तर इच्छा है। साधारण
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