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ॐ २७४ 0 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
या विरक्ति प्राप्त हो जाती है। उसे यह निश्चय हो जाता है कि अन्य समस्त इच्छाओं को छोड़कर एकमात्र मोक्ष की इच्छा ही करणीय है, ताकि मोक्षपुरुषार्थ में अवाधित रूप से प्रवृत्त हो सके। मोक्ष की इच्छा से पारमार्थिक लाभ __ स्व-स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष की इच्छा से स्व-स्वरूप को प्राप्त करने की तीव्र . भावना, अनुप्रेक्षा, रुचि आदि से अन्य इच्छाओं तथा स्वच्छन्दता का नाश अनायास ही हो जाता है। स्वच्छन्दता एवं सांसारिक इच्छाओं के निरोध से अप्रशस्त रागजनित या मोहजनित स्निग्धता (चिकनाहट) अत्यन्त कम हो जाती है। ऐसा होने से राग-द्वेष की मन्दता, न्यूनता, क्षीणता अथवा क्षय से दीर्घकालिक स्थिति के कर्मों का बन्ध नहीं होता। नये कर्मों का बन्ध रुक जाने से, आगामी भव के देह के योग्य कर्मों का टिकाव आत्मा में नहीं रह पाता। ___मोक्ष की ऐसी रुचि (भावना) के बिना मोक्ष का लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता। मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) के लक्ष्य के अभाव में कैसी भी उग्र साधना या उग्र तपस्या आत्मा के सर्वांगीण या सम्पूर्ण विकास की हेतु नहीं बन सकती। समस्त कर्मों को सर्वथा क्षय करने की रुचि के अभाव में शास्त्र-पारायणता भी परम ज्योति को नहीं जगा सकती, महाव्रतों का क्रियाकाण्ड के रूप में पालन भी आत्म-रमणता प्रदान नहीं कर सकता तथा सुदीर्घ बाह्य तपश्चरण भी भवशृंखला को तोड़ नहीं सकता।
निष्कर्ष यह है कि मोक्ष की इच्छा (मुमुक्षा) के अभाव में व्यक्ति कितना ही शास्त्र-पारगामी हो, महाव्रतधारक हो या दीर्घ तपस्वी हो, उसकी वह आत्म-साधना यथेष्ट फलदात्री (कर्मक्षयकारिणी) न होकर संसार परिभ्रमणकारिणी बन जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो-संवेग-रस के अभाव में समस्त मोक्ष-सामग्री कर्मबन्धकारिणी या भवभ्रमणकारिणी बन जाती है। मोक्ष की इच्छा का तात्कालिक फल
जैसे सूर्य के ताप से हल्दी का रंग शीघ्र ही लुप्त हो जाता है, वैसे ही मोक्ष की तीव्र इच्छा से पर-पदार्थों की समस्त इच्छाएँ अल्प हो जाती या मिट जाती हैं। अतः मोक्ष और मोक्षमार्ग की इच्छा के सिवाय समस्त इच्छाएँ परेच्छा हैं। मोक्ष की इच्छा का तात्कालिक फल है-अन्य सांसारिक इच्छाओं का अल्प होना या दूर होना। मोक्ष की इच्छा की तीव्रता-मन्दता के अनुसार अन्य इच्छाओं की शून्यता, तीव्रता या मन्दता का स्तर बनता है। आशय यह है कि जैसे-जैसे मोक्ष की इच्छा तीव्रतर होती जाती है, वैसे-वैसे भव-तृष्णा (सांसारिक इच्छा) मन्दतर होती जाती है और अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) धर्मश्रद्धा की प्राप्ति होती है, उससे भी संवेग (मोक्षाभिलाषा) पुनः-पुनः तीव्र होता जाता है। मोक्ष की इच्छा की तीव्रता के स्तर को प्रायः
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