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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र 8 २८१ 8
. दूसरा बोल-गृहीत व्रतों का शुद्ध (निरतिचार) पालन करे
तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय गुरुदेव के चरणों में नमस्कार करके विधिवत् ग्रहण किये हुए त्याग, नियम प्रत्याख्यान, व्रत, तप आदि विरतिभाव को व्रत कहते हैं, बशर्ते कि सम्यक्त्वपूर्वक तथा उस व्रत-प्रत्याख्यान का भलीभाँति स्वरूप समझकर तथा उनके पालन में आने वाले विघ्नों, अपायों, दोषों, अतिचारों से बचने की बात भी जानकर उसके पालन करने का संकल्प किया जाये। ___ यद्यपि जब तक रागभाव पूर्णतया छूटा नहीं है, तब तक व्रत-पालन करने में रागभाव आते हैं, आयेंगे भी, भले ही वह रागभाव सूक्ष्म ही क्यों न हो। व्रत अपने आप में बन्ध का कारण नहीं है। व्रतधारी व्रत ग्रहण करने पर जब कर्तृत्वभाव, भोक्तृत्वभाव, अहंभाव, ममत्वभाव लगता है। ऐसी स्थिति में व्रत संवररूप परिणाम निष्पन्न नहीं कर पाता, तब वह व्रत रागमुक्त या प्रतिस्पर्धा, आवेश आदि के वश पालन करने पर द्वेषयुक्त होने से मलिन हो जाता है।
इसी प्रकार जैसे निश्चयनय की दृष्टि से मैं सिद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा हूँ, इस प्रकार का शुभ योग रूप विकल्प करता है, वैसे ही व्यवहारदृष्टि से दो करण तीन योग से या तीन करण तीन योग से व्रत ग्रहण करने वाला भी शुभ योग रूप विकल्प करता है। इसलिए दसवें गुणस्थान तक व्रत-पालन करते समय सूक्ष्म रागांशरूप विकल्प रहता है। इसलिए व्रत स्वयं बन्ध का कारण नहीं, वह संवर-निर्जरा का कारण है, किन्तु उसकें व्रतधारी का प्रशस्त रागांश विकल्प भी शुभ बन्ध का कारण है। अतः सहजरूप से स्वरूपाचरणरूप व्रत जितना अधिक रागादि से मुक्त होगा, उतना ही शीघ्र वह मोक्ष-प्राप्ति में सफलता दिलाता है। ___ दूसरी बात-अहिंसादि प्रत्येक व्रत के साथ जो अतिचार (दोष) बताये हैं, उन दोषों से बचकर तथा व्रत ग्रहण के साथ अहंकार, प्रतिस्पर्धा, द्वेष, ईर्ष्या, पर-निन्दा., आवेश, रोष तथा इहलौकिक-पारलौकिक फलाकांक्षा, निदान, प्रशंसा, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की लिप्सा या स्वार्थ की मात्रा होगी तो व्रत मलिन हो जायेगा। अतः इन या ऐसे दोषों से रहित होकर प्रत्येक व्रत का निष्ठा-श्रद्धाभक्तिपूर्वक शुद्ध पालन साधक को शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति में सहायक हो सकता है।
तीसरा बोल-संयम का दृढ़ता से पालन करे
तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय . संयम आत्म-धर्म का प्रधान अंग है। इसका निश्चयदृष्टि से अर्थ है-शुद्ध आत्म-भाव में या आत्मा के निजी गुणों में सम्यक् प्रकार से रमण करना। ऐसा तभी हो सकता है, जब आत्मा के प्रत्येक परिणाम में शुद्ध संयम का भाव हो, तप
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