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ॐ २८२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८
और संयम से आत्मा प्रतिक्षण भावित हो, असंयम में जरा भी, थोड़े-से समय के लिए भी रति न हो, प्रतिक्षण अप्रमत्त रहकर संयम का सहजभाव से पालन हो। 'प्रवचनसारोद्धार' में व्यवहारदृष्टि से संयम के पालन हेतु संयम के १७ भेद बताये हैं-(१ से ५) हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहरूप; इन पाँच आम्रवों से विरति। (६ से १०) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र; इन पाँच इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर जाने से रोकना, अर्थात् इन्हें अपने वश में रखना, अन्तर्मुखी बनाना, बाहर भटकती हुई इन्द्रियों को आत्मा की सेवा में लगाना। (११ से १४) क्रोध, मान, माया और लोभ; इन चार कषायों को मन्दतम, मन्दतर एवं मन्द करना, इन पर विजय पाना। (१५ से १७) मन-वचन-काया की अशुभ · प्रवृत्तिरूप तीन दण्डों से विरति पाना।
प्रकारान्तर से संयम के १७ भेद इस प्रकार हैं-(१ से ५) पृथ्वीकायादि पाँच स्थावरों की हिंसा न करना, पृथ्वीकायादि संयम है। (६ से ९) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना (हिंसा) न करना, त्रस चतुष्क-संयम है। (१०) अजीवसंयम-अजीव होने पर भी जिन वस्तुओं के ग्रहण से असंयम होता है, जैसे-सोना, चाँदी आदि धातुओं तथा रत्न आदि तथा शास्त्रास्त्र आदि को पास में न रखना। पुस्तक, शास्त्र, ग्रन्थ, पन्ने आदि तथा संयम-यात्रा के लिए कतिपय उपकरणों को प्रतिलेखन करते हुए, ममत्वभाव से रहित होकर यतनापूर्वक रखना असंयम नहीं है, फिर भी उनका व्युत्सर्ग करना, कम से कम उपकरणों से संयम निर्वाह करना अजीवसंयम है। (११) प्रेक्षासंयम-हरी दूब, बीज, घास, जीव-जन्तु आदि से रहित स्थान में अच्छी तरह देखभालकर सोना, बैठना, चलना आदि क्रियाएँ करना। (१२) उपेक्षासंयम-जो भी पापकार्य या आरम्भयुक्त कार्य हो, उसके लिए प्रोत्साहित न करना, उपेक्षाभाव रखना। (१३) प्रमार्जनासंयम, (१४) परिष्ठापनासंयम, (१५) मनःसंयम, (१६) वचनसंयम, और (१७) कायसंयम। ___यद्यपि संयम के दोनों प्रकार से १७-१७ भेद व्यवहारदृष्टि से हैं, किन्तु आत्म-भावों को भावित रखने के लिए व्यवहारदृष्टि से भी संयम के प्रति निष्ठा, दृढ़ता, श्रद्धा-भक्ति-रमणता आदि अनिवार्य है। इसलिए पूर्ण वीतरागता प्राप्त न हो तब तक रागांश रहेगा। संयम के भाव अपने आप में संवर-निर्जरारूप होने से शीघ्र मोक्षदायक हैं, किन्तु साथ में प्रशस्त रागभाव होने से वह सरागसंयम कर्ममुक्तिकारक न होने से शुभ कर्मबन्ध (पुण्यबन्ध) का कारण बनता है। संयम में शुद्धता भी तभी रह सकती है, जब संयम-पालन के साथ अहंकार क्रियापात्रता या उत्कृष्टता का मद, मत्सर, पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा, प्रसिद्धि, यशःकीर्ति, १. (क) प्रवचनसारोद्धार
(ख) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह
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