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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र २७९ *
किया जा सकता। ज्ञान आत्मा स्वाभाविक गुण होते हुए भी वर्तमान में मुमुक्षु साधक में आवृत है, दबा हुआ है, विकृत है, विस्मृत हो जाता है, कुण्ठित हो जाता है। यहाँ ज्ञान से 'श्रुतज्ञान' का ही ग्रहण करना चाहिए। ‘भगवतीसूत्र' में बताया गया है कि "सीखा हुआ सम्यग्ज्ञान (श्रुतज्ञान) उसके जीवन में रहता है, उपयोगी बनता है, पर-भव में भी वह ज्ञान साथ में जाता है और दोनों भवों में रहता है।" श्रमण निर्ग्रन्थ के तीन मनोरथों में एक मनोरथ यह भी है-"कब मैं अल्प या बहुत श्रुत (शास्त्रों) का अध्ययन करूँगा।"२ देवों को पश्चात्ताप होने के तीन कारणों में से पहला कारण यह भी है-“अहो ! मैंने बल, वीर्य, पुरुषकार (पौरुष), पराक्रम, क्षेम, सुभिक्ष, आचार्य और उपाध्याय की उपस्थिति एवं निरोग शरीर होते हुए भी श्रुत (शास्त्रों) का अधिक अध्ययन नहीं किया।"३ - अतः श्रुतज्ञान का अभ्यास करने-कराने, उसे पढ़ने-पढ़ाने, स्वाध्याय करने-कराने, ज्ञान सीखने और सिखाने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होकर अज्ञान, मिथ्यात्व, भ्रान्ति, विपर्यास एवं विस्मृति आदि का अन्धकार दूर हो जाता है। व्यक्ति पर भावों और विभावों में रमण करने के बदले ज्ञाता-द्रष्टा बनकर स्वभाव में स्थित रह सकता है। शास्त्राध्ययन करते रहने से दशवैकालिक-सूत्रोक्त चार प्रकार की श्रुतसमाधि भी प्राप्त होती है तथा जिज्ञासु व्यक्तियों को भी स्वभाव में स्थित रहने की कला सिखा सकता है। ज्ञान में तन्मयता से, अभीक्ष्ण या निरन्तर ज्ञानोपयोग में रहने से व्यक्ति विशुद्ध आत्म-भावों में रहकर कर्मों की महानिर्जरा करता हुआ शीघ्र ही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
तीसरा बोल-पिछली रात्रि में धर्मजागरणा करे
तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का ही एक अंग है और स्वाध्याय से आत्मा के ज्ञान पर आये हुए अज्ञान और मोह के आवरण दूर होकर ज्ञान का प्रकाश बढ़ जाता है। धर्मजागरणा में अपने आप का अध्ययन, मनन, सम्प्रेक्षण एवं चिन्तन-अवलोकन करना पड़ता है। स्वाध्याय का विशिष्ट अर्थ भी यही है-"स्वस्य स्वस्मिन् अध्ययनं स्वाध्यायः।"-अपने आप का, अपने जीवन का अपने में डूबकर अध्ययन-मनन-सम्प्रेक्षण करना स्वाध्याय है। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-"जो
१. इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे। -भगवतीसूत्र, श. १, उ. १ . २. कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिज्जिस्सामि। -स्थानांग, स्था. ३, उ. ४, सू. ४९६
३. अहो णं मए संते बले वीरिए संते पुरिसक्कार-परक्कमे खमंसि सुभिक्खंसि आयरिय-उवज्झाएहिं ... विज्जमाणेहिं कल्लसरीरेणं णो बहुए सुए अहीते। -वही, स्था. ३, उ. ३, सू. ३६४ ४. चउव्विहा सुय-समाही भवइ ।
-दशवकालिक, अ. ९, उ. ४
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