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४ शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता २६१
जानता है और बुरे को बुरा, किन्तु न वह अच्छे को कर पाता है और न ही बुरे को छोड़ पाता है। क्या यह ज्ञान और आचरण की दूरी वनी की बनी रहेगी ? क्या वह मिट नहीं पाएगी ? यदि मिट नहीं सकती है, तो ज्ञान की - सम्यग्ज्ञान की मार्थकता कहाँ है ?
मोक्ष के प्रति पुरुषार्थ मोक्ष के स्वरूप को जानते हुए भी क्यों नहीं होता ?
जो व्यक्ति मोह और मूर्च्छा के कारण होने वाले कर्मवन्ध को बुरा मानता है। और चाहता है कि सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की प्राप्ति हो, उसके लिए प्राचीन बद्ध कर्मों का क्षय निर्जरा के द्वारा तथा नवीन कर्मों के आगमन का निरोध संवर के द्वारा करके मोक्ष की दिशा में शीघ्र गति - प्रगति करके उसकी प्राप्ति करनी है, परन्तु वह होती नहीं, तो उसके मन में एक अनुताप - संताप तथा अपने पुरुषार्थ के प्रति अश्रद्धा एवं सस्ती सिद्धियों-प्रसिद्धियों, चमत्कारों और प्रशंसा के प्रति आसक्ति पैदा होती है और मोक्ष के ज्ञान से उसका आचरणं मोक्ष प्राप्ति से दूरातिदूर होता जाता है। लगा था - मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ के लिए, किन्तु हो रहा है-संसार-वृद्धि का पुरुषार्थ ! क्या इस मोक्ष के ज्ञान और तदनुरूप पुरुषार्थ की दूरी को मिटाने का कोई समाधान नहीं है ? अवश्य है, दुनियाँ में ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका समाधान न हो । हर समस्या का समाधान है, बशर्ते कि हम उसे भलीभाँति जानें और उस पर श्रद्धापूर्वक चलें ।
मोक्ष के ज्ञान और तदनुरूप आचरण में पुरुषार्थ की दूरी तब तक नहीं मिट सकती, जब तक दृष्टिकोण सम्यक् न हो, सम्यग्दर्शन न हो, मोक्ष तत्त्व के प्रति श्रद्धा, भक्ति, आस्था, रुचि दृढ़ और तीव्र न हो, मोक्ष प्राप्त करने की उत्कण्ठा, . तीव्र विश्वास न हो। जब मोक्ष के प्रति आस्था, श्रद्धा, रुचि और दृष्टिकोण का निर्माण हो जाता है, तो मोक्ष के ज्ञान और तदनुरूप आचरण की दूरी कम होने लगती है।'
शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए चारों का समन्वित पुरुषार्थ जरूरी
यही कारण है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए भगवान महावीर ने सिर्फ ज्ञान का होना ही पर्याप्त नहीं माना है, ज्ञान के साथ-साथ सम्यग्दर्शन का होना अनिवार्य माना है। बिना सम्यग्दर्शन के ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता और ज्ञान सम्यक् हुए बिना आचरण (पुरुषार्थ = चारित्र) सम्यक् नहीं होगा । चारित्र में पुरुषार्थ के लिए तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र के साथ-साथ आने वाले कषाय- कालुष्य को, राग-द्वेष को धोने के लिए बाह्य-आभ्यन्तर सम्यक्तप भी आवश्यक है । इस प्रकार ज्ञान, दृष्टि,
१. 'अपने घर में ' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ११७-११९
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