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ॐ २६२ * कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
चारित्र और तप, इन चारों का समन्वित एवं सम्यक् पुरुषार्थ ही मोक्ष-प्राप्ति में शीघ्र सफलता दिला सकता है। कोरे ज्ञान से आचरण में बाधा डालने वाली बातें दूर नहीं होती
ज्ञान का काम सिर्फ जानना है। हेय, ज्ञेय और उपादेय, यह एक त्रिपदी है। जो ज्ञान का विषय है, वह ज्ञेय है। जान लेने पर दो दृष्टियाँ वनती हैं-एक तो हेय . को हेय मानती है, दूसरी उपादेय को उपादेय मानती है। पहले मोक्ष के यथार्थ म्वरूप का जान लेना, तदनन्तर छोड़ने की बात को जान लेना और ग्रहण (स्वीकार) करने की बात को भी जान लेना, ये तीन वातें ज्ञेय (ज्ञान) के दायरे में : आती हैं। इससे ज्ञान पर जो आवरण (पर्दा) था वह हट गया। स्पष्ट प्रतीत होने लगा। परन्तु इतनी ही पर्याप्त नहीं है। ___ ज्ञान होने से केवल आवरण हटा है, परन्तु आचरण में बाधा डालने वाली बात अभी मौजूद है। जब तक मूर्छा नहीं मिटती, मोह का तीव्र आवेग नहीं मिटता, तब तक सम्यक् आचरण (सत्पुरुषार्थ) सम्भव नहीं है। मूर्छा का काम हैव्यक्ति को विमोहित-सम्मोहित कर देना, विपर्यय पैदा कर देना, उसकी दृष्टि में : विपरीतता ला देना कि जिस प्रकार साँप के काटे हुए कड़वे नीम के पत्ते भी मीठे लगने लगते हैं, उसी प्रकार मनुष्य अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म, संसार के मार्ग को मुक्ति का मार्ग और मुक्ति के मार्ग को संसार का मार्ग समझने लगता है। जानते हुए भी वह अनजान-सा बन जाता है। विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय के कारण व्यक्ति मोक्ष आदि का स्वरूप जानता हुआ भी कहाँ, कब, क्या करना है? कर्म मुक्ति के लिए क्या आचरणीय है, क्या अनाचरणीय? उसकी यह सारी स्मृति (मोहवश) विस्मृति बन जाती है। ज्ञान और आचरण में दूरी का एक कारण : मूर्छा का चक्र ___ प्रायः कई साधक यह जानते हैं कि पेट खराब है, पाचन क्रिया खराब है, अधिक और गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए। परन्तु सामने कोई अच्छी चीज आती है, तो खाने का लोभ छोड़ नहीं पाता। डायबिटीज का रोगी जानता है कि मिठाई उसके लिए जहर है; फिर भी वह खाता है। यह सब विपर्याय क्यों होता है ? इसलिए होता है कि मनुष्य के अन्तर में मूर्छा के परमाणु तीव्रता से गति कर रहे हैं। इस कारण उसका ज्ञान अज्ञान बन रहा है एवं जानने और आचरण में
१. (क) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
एयमग्गमणुप्पत्ता जीवा गच्छंति सोग्गई॥ (ख) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।
-उतरा., अ. २८/२ -तत्त्वार्थसूत्र, अ. १, सू. १
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