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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता * २६५ 8
पुरुषार्थ से (भले ही वह शारीरिक हो या मानसिक), कर्म बंध जाता है, उसी प्रकार व्यक्ति के स्वकीय पुरुषार्थ से कर्मों से मुक्ति (संवर-निर्जरा द्वारा) भी हो सकती है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' का सम्यक्त्व-पराक्रम नाम का समग्र अध्ययन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यकचरित्र और सम्यकतप से सम्बन्धित विविध सूत्रों के माध्यम से मोक्ष के लिये किये जाने वाले पुरुषार्थ की ही प्रेरणा देने वाला है। उसी आगम का ३२वाँ प्रमादस्थान नामक अध्ययन के अन्त में भी कहा गया है कि प्रमाद से जो बन्ध होता है, उसके निवारण के लिए अप्रमत्ततापर्वक समतायोग में पुरुषार्थ करके वह साधक वीतराग, कृतकृत्य, घातिकर्म चतुष्टय निवारक, अमोही, निरन्तराय, अनासव, केवली और ध्यानसमाधियुक्त होकर आयुष्य के क्षय होने पर शुद्ध पूर्ण मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। 'समयसार' ग्रन्थ में भी पुरुषार्थ की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-"जैसे अर्थार्थी पुरुष राजा को जानकर उसके प्रति श्रद्धा करता है, फिर प्रयत्न द्वारा उसके अनुकूल आचरण करता है; उसी प्रकार मोक्षकामी पुरुष को जीव (आत्मा) रूपी राजा को पहले जानना चाहिए, तदनन्तर उस पर श्रद्धा करनी चाहिए और फिर उसी (आत्मा) के अनुकूल आचरण करना चाहिए।'' भगवान महावीर ने अपने जीवन के पूर्ण आध्यात्मिक विकास रूप मोक्ष के लिए स्वयं सत्पुरुषार्थ का जगत् को सन्देश दिया है। उन्होंने पुरुषार्थ के बिना कर्मबन्ध से मुक्ति (मोक्षके लिए अयोग्य बताया है-"जो केवल बंध और मोक्ष की लम्बी-चौड़ी व्याख्या करते हैं, ऐसे लोग बंध से छुटकारा पाने तथा मोक्ष प्राप्त करने की बातें कहते हैं, परन्तु तदनुकूल आचरण बिलकुल नहीं करते। ऐसे वाणी शूर इतने मात्र से स्वयं को आश्वासन देते रहते हैं। इसी प्रकर मोक्षपुरुषार्थ का माहात्म्य बताते हुए ‘समयसार' में कहा गया है-“जिस प्रकार चिरकाल से बन्धन में पड़ा हुआ पुरुष बन्धन काटने का पुरुषार्थ न करे तो चिरकाल तक भी उक्त बन्धन से छुटकारा नहीं पा सकता; उसी प्रकार कर्मबन्धों के प्रदेश, अनुभाग, प्रकृति और स्थितिरूप भेदों को जान लेने मात्र कर्मबन्ध से मुक्ति नहीं हो सकती; बल्कि राग-द्वेष आदि को बन्धनकारक जानकर उन्हें छोड़ने के तीव्र पुरुषार्थ से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है।''रे
१. (क) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का २९वाँ 'सम्यक्त्व-पराक्रम' नामक अध्ययन
(ख) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का ३२वाँ ‘प्रमादस्थान' नामक अध्ययन (ग) सवीयरागो कय-सव्व किच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं।
तहेव जं दंसण मावरेइ, जं चांतरायं पकरेइ कम्मं ॥१०८॥ सव्वंतओ जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए। अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धं ॥१०९॥
-उत्तराध्ययन, अ. ३२. गा.१०८-१०९ २. (क) जह णाम कोवि पुरिसो, रायाणं जाणि ऊण सद्दहदि ।
तो तं अणुचरदि पुणो, अत्थत्थीओ पयत्तेणं ॥१७॥
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