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ॐ २५८
कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
(५) उत्तम कुल-आर्यदेश में उत्पन्न होकर भी वहुत-से लोग नीच कूल में उत्पन्न होते हैं, जैसे-हरिकेशवल चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुआ, जहाँ उसे धर्म का विलकुल वोध नहीं हुआ। नीच कुलोत्पन्न मानव को सद्धर्म के आचरण का वातावरण एवं सुसंस्कार तथा सत्संग नहीं मिलता। इसलिए आर्यदेश के पश्चात् उत्तम कुल का मिलना बहुत कठिन है।
(६) उत्तम जाति-उत्तम कुल के मिलने पर भी उत्तम जातियुक्त मातृपक्ष सुसंस्कारी, धर्मनिष्ठ, विशुद्ध न हो तो मोक्ष-प्राप्ति में सत्पुरुषार्थ होना कटिन होता है। इसलिए विशुद्ध एवं उत्तम जाति का मिलना आवश्यक है। . .
(७) पंचेन्द्रिय समृद्धि (रूप समृद्धि)-नाक, आँख, कान, जीभ आदि पाँचों इन्द्रियों की परिपूर्णता का नाम रूप समृद्धि है। पूर्वोक्त सभी वातें मिल जाने पर भी यदि पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता न हो, यानी कोई भी इन्द्रिय हीन या क्षीण हो तो सद्धर्म का यथार्थ रूप से आचरण नहीं हो सकता। श्रोत्रेन्द्रिय में किसी प्रकार की हीनता हो तो शास्त्र-श्रवण या धर्मकथा-श्रवण का लाभ नहीं लिया जा सकता। चक्षुरिन्द्रिय में हीनता हो तो जीव दिखाई न देने से उनकी दया या रक्षा नहीं हो सकती। शरीर के अन्य अवयव, जैसे-जीभ में चखने और बोलने की शक्ति में हीनता आ गई हो तो किसी चीज को चखकर निर्णय न कर सकने के कारण उस पर तथा बोलने की शक्ति नष्ट या हीन होने के कारण उस पर संयम नहीं रखा जा सकेगा। इसी प्रकार शरीर के हाथ-पैर आदि अवयव पूर्ण न होने से या पूर्ण स्वस्थ न होने से भी धर्म और मोक्षपुरुषार्थ सम्यक् रूप से नहीं हो सकेंगे। यही कारण है मोक्ष-प्राप्ति के लिये पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता एवं स्वस्थता का होना अत्यावश्यक है।
(८) बल (पुरुषार्थ)-उपर्युक्त सभी साधन मिलने पर भी शरीर में बल, वीर्य, पराक्रम और सामर्थ्य न हो तो त्याग, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान या बाह्य आभ्यन्तर तप, परीषह-उपसर्ग-सहिष्णुता, तितिक्षा आदि कुछ भी नहीं हो सकता। अतः तन-मन में सामर्थ्य एवं शक्ति का होना भी अत्यन्त आवश्यक है।
(९) जीवित (दीर्घ आयु)-बहुत-से प्राणी जन्म लेते ही या रोगादि के कारण अल्प आयु में ही मर जाते हैं। दीर्घ आयुष्य मिले विना प्राणी धर्म की आराधनासाधना नहीं कर सकता। अतः जीवित (दीर्घ जीवन या लम्बी आयु) भी मोक्ष-प्राप्ति में सहायक है।
(१०) विज्ञान (नवतत्त्वज्ञान)-लम्बा आयुष्य प्राप्त करके बहुत-से मनुष्य विवेक विकल होते हैं। उन्हें हित-अहित का, हेय-उपादेय का ज्ञान नहीं होता। इस कारण उनकी रुचि जीवादि नौ तत्त्वों के ज्ञान के प्रति नहीं होती। नौ तत्त्वों के
१. जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ५, बोल ८५0
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