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ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के पुरुषार्थ की सफलता 8 २५३ .
करने का पुरुषार्थ क्या अर्थपुरुषार्थ नहीं है? और पाँचों इन्द्रियों तथा मन को अपने-अपने विषयों में क्या साधूवर्ग को प्रवृत्त होना नहीं पड़ता? वह आवश्यकतानुसार देखता, सुनता, सूंघता, चखता और स्पर्श भी करता है, वाणी से वोलता भी है, हाथ-पैरों आदि का भी यथोचित यथावश्यक उपयोग करता है। मन, वृद्धि, चित्त और हृदय से मनन-चिन्तन और निर्णय भी करता है, सोचता-विचारता भी है। किन्तु इन सव का उपयोग वह यथासम्भव करता है-राग-द्वेष, कषाय, आसक्ति-मूर्छा, प्रियता-अप्रियता आदि विभावों-विकारों से रहित होकर यतनापूर्वक ही। वह धर्म में और धर्मानुप्राणित अर्थ और काम में पुरुषार्थ करता है। साधूवर्ग हो या गृहस्थवर्ग, दोनों अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर अर्थ और काम का पुरुषार्थ धर्म के नियंत्रण में करते हैं। दोनों ही सदैव यह ध्यान रखते हैं कि किसी भी प्रवृत्ति का पुरुषार्थ ऐसा हो, जिससे हमारे सम्यक्त्व में आँच न आए, हमारे व्रतों में कोई दोष न लगे, हमारी धर्म-मर्यादाएँ सुरक्षित रहें। अर्थात् हमारे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकुचारित्र किसी भी इहलौकिक-पारलौकिक कामना, निदान, स्वार्थ, भोगाकांक्षा या फलाकांक्षा से अथवा यशःकीर्ति-प्रतिष्ठा-प्रशंसा की लिप्सा से ग्रस्त न हो। साधुवर्ग भी यह विवेक रखता है कि समिति-गुप्तिरूप अष्टप्रवचन माता द्वारा हमारे आत्म-धर्म की-आत्मा की रक्षा हो। क्या इस प्रकार धर्ममर्यादा में रहते हुए पाँचों इन्द्रियों का तथा मनोगत विषयों का राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता से रहित होकर सेवन करना कामपुरुषार्थ का सेवन करना नहीं है ? 'दशवैकालिकसूत्र की नियुक्ति' में कहा गया है“धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थ को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिन-वचन के अनुसार कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण उन्हें परस्पर असपत्न यानी अविरोधी समझने चाहिए।'' 'आचारांगसूत्र' में भी स्पष्ट कहा गया है कि “किसी भी साधक का पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सर्वथा सेवन करना शक्य नहीं है, किन्तु उन सब में जो राग और द्वेष के भाव हैं, उनसे सदा दूर रहना चाहिए।" ___ यही कारण है कि 'दशवैकालिकसूत्र' के छठे अध्ययन में कहा गया है
“हंदि ! धम्मत्थ-कामाणं निग्गंथाणं सुणेह मे।" - -हे शिष्य ! निर्ग्रन्थों के धर्म तथा धर्मनियंत्रित अर्थकामों (अर्थ-कामपुरुषार्थों) का निरूपण मुझसे सुनो।
इसके आगे की गाथाओं में साधुधर्म की मर्यादाओं के अनुसार संयम-यात्रा के लिए कौन-कौन-से आवश्यक पदार्थों का तथा इन्द्रिय-नोइन्द्रिय-विषयों का ग्रहण, उपयोग एवं संरक्षण किस प्रकार करना चाहिए, किस प्रकार नहीं? इसका विधि-निषेध के रूप में बहुत ही उत्तम ढंग से प्रस्तुत किया गया है।' १. (क) धम्मो अत्थो कामो, भिन्ने ते पिंडिया पडिस वत्ता।
जिणवयण-उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा॥ -दशवैकालिक नियुक्ति २६२ (ख) दशवैकालिकसूत्र, अ. ६, गा. ४, ७-६९
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