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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? * २५१ ॐ
केवल शुभ रागपूर्वक भक्ति करना शुभाम्नव का कारण है। किन्तु भेद-भक्तिमान भी सिद्ध परमात्मा के गुणों को लक्ष्य में लेकर भक्ति करता है। ऐसे भानपूर्वक निज शुद्ध आत्मा में लीनता निश्चय-भक्ति है, वहाँ जो सिद्ध परमात्मा की भक्ति का भाव है, वह व्यवहार-भक्ति है। ऐसी भक्ति भी संवर, निर्जरा और अन्त में मोक्ष का कारण हो सकती है। निखालिस अभेद-भक्ति वह है, जिसमें यह ज्ञान-भान रहता है कि अपनी शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। परमात्मपद कहीं बाहर नहीं, अपनी आत्मा में, आत्म-शक्ति में भरा है। उसी की श्रद्धा, प्रतीति और ज्ञान करके उसी में लीन होना ही परम (निश्चय) = अभेद-भक्ति है। जैसे कि 'नियमसार' में कहा है-अपनी ज्ञानानन्दस्वरूपी रागरहित शुद्ध आत्मा की निर्विकल्प श्रद्धा, ज्ञान और स्वरूपरमणता ही परमार्थ-भक्ति = अभेद-भक्ति है। अतः उस परम शक्तिमान् शुद्ध आत्मा को ही अभेद-भक्ति में कारण-परमात्मा माना जाता है तथा वर्तमान केवलज्ञानादि पूर्ण पर्याय का या परम स्वभाव का पूर्णतया प्रगट होना कार्य-परमात्मा है। आत्मा की सिद्धि, मुक्ति का सीधा उपाय यही अभेद-भक्ति है, जो शुद्ध रत्नत्रय से होती है। इसी अभेद-भक्ति में ही आत्मा की आराधना, आत्मा की ही भक्ति, प्रसन्नता, कृपा और उसी का अनुग्रह एवं आत्म-स्वभाव की ही रागरहित साधना है।'
१. 'पानी में मीन पियासी' के आधार पर, पृ. २९३-२९५
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