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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? 2 २४९
दुसरी वात यह है कि सम्यग्दृष्टि तत्त्वज्ञ साधक में शुभ राग के निमित्त (वीतगग परमात्मा आदि) के प्रति आदर-वहुमान रहता है, परन्तु उसकी दृष्टि में शुभ गग को आदर नहीं है सिर्फ अखण्ड निर्विकारी शुद्ध आत्म-गुणों का, शुद्ध आत्म-स्वरूप का ही आदर या बहुमान है। इस प्रकार की पूर्ण अविकारी आत्मा की रुचि ही आत्मा को परमात्मभाव की ओर बढ़ाती है। राग से पूर्णतयारहित वीतराग को = शुद्ध आत्मा को, शुद्ध आत्म-स्वरूप को पहचानने और उक्त सत् की रुचि का मन्थन-मनन करने में वह वीतराग परमात्मा आदि की भक्ति को निमित्त मानता है। 'वन्दे तद्गुणलब्धये' उन्हीं अरिहन्तों, सिद्धों, वीतरागों के गुणों की उपलब्धि के लिए ही वह वन्दना, नाम-स्मरण, स्तुति, भक्ति आदि करता है। इसी दृष्टि से वह परमात्म-भक्ति को अपनाता है, ताकि वह इस समय वीतराग परमात्मा की भक्ति में प्रशस्तराग होते हुए भी उस निमित्त से अपनी आत्मा को वीतरागता से ओतप्रोत वना सके, वीतरागता में तन्मय हो सके तथा परमात्मभाव प्राप्त करने के लिए सतत जाग्रत रख सके। साथ ही परमात्मा आदि की भक्ति, गुणगान, स्तुति, नाम-म्मरण आदि में निमग्न रहकर अशुभ भावों तथा अशुभ राग को सतत मन से हटा सके।
परन्तु ऐसा आत्मार्थी एवं मुमुक्षु भक्तिमान् साधक इस तथ्य-सत्य को भलीभाँति समझ लेता है कि मेरे में परमात्मभाव या शुद्ध आत्म-भाव मेरी ही आत्मा स्वभाव में पुरुषार्थ से, शुद्ध रत्नत्रय साधना से ला सकती है। भगवान या अन्य कोई मुझे तार देगा, सहायता कर देगा या किसी के प्रति शुभ राग से या परमात्मा की शुभ रागयुक्त भक्ति से मैं परमात्मभाव प्राप्त कर लूँगा, ऐसी धारणा या मान्यता उसकी नहीं होती। परमात्मा की भक्ति शुभ या शुद्ध भाव में तथा वीतराग परमात्मा का स्मरण कराने में निमित्त है। ऐसा मानकर तत्त्वज्ञानी भक्त (परमात्मभाव = मोक्षरूप) पूर्ण साध्य के प्रारम्भ और वीच की स्थिति या भूमिका का सतत ध्यान रखता है।
भेद-भक्ति और अभेद-भक्ति का रहस्य, महत्त्व और उपादेयत्व सिद्ध परमात्मा या अरिहन्त परमात्मा (यानी विदेहमुक्त और सदेह जीवन्मुक्त) दोनों में से किसी को अपनी पूर्वोक्त शुभ (प्रशस्त) रुचि (गग) या निमित्त मानकर उनका पूर्वोक्त विविध रूप से आलम्बन लेकर भक्ति करना, जैनदृष्टि से भेद-भक्ति है, किन्तु भेद-भक्तिमान् की दृष्टि सम्यक् हो, मोक्षलक्ष्यी या परमात्मपद-प्राप्तिलक्ष्यी अथवा शुद्धात्मभावलक्ष्यी हो, तभी शुद्ध भेद-भक्ति है अन्यथा लक्ष्यविहीन, केवल
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. २९२
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