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* भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? २४७
होकर एकमात्र शुद्ध आत्मा = परमात्मा के प्रति रति = अनुरक्ति होना। पाराशर्य (पराशर-पुत्र व्यास) ने कहा - भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है। इसका तात्पर्य है-साकार में निराकार को देखना, निराकार को निमंत्रण देनापुकारना, अर्चा पूजा है। नारद ने एक बात और कही है भक्ति के विषय मेंसमस्त कर्मों-कार्यों को भगवान के अर्पण कर देना भक्ति है | शरीर, मन, बुद्धि, कर्म (प्रवृत्ति) आदि में से कुछ भी अपना मत समझो, सब कुछ परमात्मा पर छोड़ दो, तुम कर्त्ता न रहो, साक्षी हो जाओ। '
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जैन-सिद्धान्त की निश्चयदृष्टि से भक्ति की चरम निष्पत्ति भक्त और भगवान या उपास्य और उपासक बीच के द्वैत या दूरी को समाप्त करने में है । यह दूरी ज्यों-ज्यों कम होती जाती है, त्यों-त्यों व्यक्ति स्वयं में भगवत्ता की अनुभूति करने लगता है और एक दिन इस द्वैत को समाप्त करके भक्त स्वयं भगवान बन जाता है। जैसा कि 'भक्तामर स्तोत्र' में कहा गया है
“नात्यद्भुतं भुवन-भूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्भुविभवन्तमभिष्टुवन्तः।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ २
- हे विश्व के शृंगार ! हे जगन्नाथ ! विद्यमान गुणों द्वारा आपकी स्तुति = प्रीति
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भक्ति करने वाले पृथ्वी पर आपके समान हो जाते हैं, यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है अथवा उस (स्वामी) से क्या, जो इस लोक में अपनी विभूति (परमात्मरूप ऐश्वर्य) से अपने आश्रित (अधीन सेवक) को अपने समान नहीं करता / बना देता ।
रागात्मक-भक्ति से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष या संवर- निर्जरा कैसे ? सामान्यतया भक्ति में अनुरक्ति (अनुराग), श्रद्धा एवं विशुद्ध प्रेम को आवश्यक माना है। परमात्मा के प्रति निश्छल प्रेम, अनुराग, श्रद्धा ही भक्ति का आधार है। दूसरी ओर जैनधर्म में वीतरागता प्राप्ति को साधक का लक्ष्य बताया
१. ( क ) सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥२॥
(ख) सा न कामसमाना, निरोधरूपत्वात् ॥७॥
(ग) अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ॥ १० ॥
(घ) नारदस्तु तदर्पिताऽखिलाचरिता, तद् - विस्मरणे परमव्याकुलतेति ॥१९॥
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- नारदभक्तिसूत्र २, ७, १०, १९
(ङ) कथादिष्विति गर्गः ।
(च) आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ।
(छ) पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ।
(ज) 'भक्तिसूत्र' (आचार्य रजनीश) से भाव ग्रहण, पृ. १२२-१३५
२. भक्तामर स्तोत्र, श्लो. १०
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