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ॐ २४६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ &
अनुराग (प्रीति, विनय, प्रेम) रखना, उनकी वन्दना, स्तुति, प्रार्थना, कीर्तन, अर्चा करना, उनकी आज्ञा की आराधना, उनके संघ, प्रवचन आदि के प्रति वात्सल्य रखना, उनके प्रति अपने आप को सर्वतोभावेन भावविशुद्धिपूर्वक समर्पण करना।
भक्ति शब्द का फलितार्थ यह है कि भक्ति के अंगोपांगों के रूप में निरूपित पूर्वोक्त क्रियाएँ तब तक सही माने में नहीं कही जा सकतीं, जब तक कि उपास्य आराध्य या पूज्य के प्रति पूज्य बुद्धि, श्रद्धा, अनुरक्ति और समर्पण भावना न हो ‘भगवती आराधना' के अनुसार-“अहँत आदि के गुणों के प्रति अनुराग-भक्ति है।' 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-“अर्हत्, आचार्य, बहुश्रुत एवं प्रवचन के प्रति भावविशुद्धियुक्त अनुराग-भक्ति है।"?. ___ यही कारण है कि नारद, शाण्डिल्य, पाराशर्य आदि भक्ति-विशेषज्ञ भक्तिमार्ग आचार्यों ने तथा जैनाचार्यों ने पृथक्-पृथक् रूप में भक्ति का लक्षण और उपाय तथा स्वरूप बताया है। 'नारदभक्तिसूत्र' में भक्ति को परम प्रेमरूपा बताकर स्पष्ट किया है कि वह कामनायुक्त न होने से निरोधस्वरूपा है। कामनाओं का निरोध वस्तुतः आस्रवों का निरोध है, अथवा परमात्मा से किसी प्रकार याचना करने का त्यागरूप निरोध संवररूप है। इसी नारदभक्तिसूत्र में भक्ति का एक लक्षण और दिया है-अपने प्रियतम प्रभु को छोड़कर अन्य आश्रयों का त्याग करना प्रियतम में अनन्यता भी भक्ति है। आशय यह है कि नारद के मतानुसार-भगवान का जरा-सा भी विस्मरण होने से वयाकुल होना भक्ति है। अर्थात् परमात्मा को जरा-सी देर के लिए भूलना भक्त को सह्य न हो, जैसे-मछली को सागर से हटने पर तड़फन हो जाती है, वही हालत परमात्मा से हटने पर भक्तिमान की हो जाना। एक आचार्य ने भक्ति की व्याख्या की है-प्रभु का नाम-स्मरण या भजन अविच्छिन्न रूप से हृदय में गूंजता रहना, मन में चलते रहना, दूसरा नाच न आना अविच्छिन्न भक्ति है गर्गाचार्य के अनुसार-भगवान की कथादि में अनुराग-भक्ति है। सामान्य लोगों के विकथाओं या विवादकथाओं में रस को निरन्तर भगवत्कथा में मोड़ देना भक्ति है जैसे कि 'भक्तामर स्तोत्र' में कहा है-"त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति।" -आपकी जीवनगाथा (कथा) भी जगत् के जीवों के पापों का नाश करती है शाण्डिल्य के मतानुसार-आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना भक्ति है। इसका तात्पर्य है-पर-पदार्थों, पर-भावों या विभावों के प्रति रति = अनुरक्ति न
१. (क) “भज सेवायाम्' धातु से व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ-भजति आराध्यं यथा सा भक्तिः। (ख) 'सागर जैन विद्या भारती, भा. १' में 'जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा' से भाव
ग्रहण (ग) अहंदादिगुणानुरागी भक्तिः।
-भगवती आराधना (घ) अहंदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचनेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागे भक्तिः। - -सर्वार्थसिद्धि
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