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* २३६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति की दो परख
परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति की दो परख हैं-(१) सघन आशावादिता, और (२) मुस्कानभरी प्रसन्नता। परमात्म-भक्ति के प्रभाव से उपलब्ध इन दोनों मनःस्थितियों के कारण जीवन इतना सरस, सरल और आत्मीयता के बोध से परिपूर्ण रहता है कि सामान्य कष्टकारक परिस्थितियों या चिन्ता, शोक की परिस्थिति में भी भक्तिमान् मानव का मुख म्लान नहीं होता। परमात्म-भक्त के समक्ष भी अभाव, हानि और इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग की अप्रिय परिस्थितियाँ आती रहती हैं। परमात्म-भक्ति के फलस्वरूप उसके जीवन में सदा अनुकूल स्थिति, या प्रचुर सुख-सुविधा ही बनी रहेगी, ऐसी बात नहीं है। परन्तु अप्रिय और प्रतिकूल परिस्थितियों में सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न सच्चा भक्त अधिक प्रभावित नहीं होता, उन्हें वह विनोदपूर्वक देखता है, उनका हँसते-हँसते सामना करता है अथवा स्वयं को बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप ढाल लेता है। वह ऐसे समय में रोता-खीजता नहीं, परमात्मा या भगवान को कोसता नहीं। पूर्वोक्त दो वरदानों के फलस्वरूप परमात्मा के प्रति शुद्ध आस्था तथा उसके परिष्कृत सम्यक् दृष्टिकोण के कारण उसके अन्तर में सन्तोष, आश्वासन और आह्लाद की तथा कर्मक्षय के सुअवसर की उदात्त ऊर्मियाँ उछलती रहती हैं। उद्विग्नता, तनाव, चिन्ता और विषाद उसके पास अधिक देर तक टिकने भी नहीं पाते।' परमात्मा के प्रति अनन्य भक्तिमान् के लक्षण
'भगवद्गीता' में परमात्मा के प्रति अनन्य भक्तिमान् के कुछ लक्षण दिये गए हैं, उनमें भी इसी तथ्य का समर्थन है-"जो भक्त समस्त प्राणियों के प्रति द्वेषभाव से रहित है, निःस्वार्थ मैत्री और करुणा से युक्त है, ममता और अहंता से रहित है, सुख और दुःख में सम रहता है, क्षमावान् है, लाभ-हानि में सन्तुष्ट है, अध्यात्मयोगी है अथवा कर्मयोगी है, इन्द्रिय और मन पर संयम करता है, दृढ़ निश्चयी है, प्रभु के प्रति जिसने मन और बुद्धि को समर्पित कर दिया है तथा जो स्वयं लोगों से उद्विग्न नहीं होता और न ही उससे दूसरे लोग उद्विग्न होते हैं एवं हर्ष, अमर्ष (संताप या रोष), भय और उद्वेग से मुक्त है, जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता, बाहर और भीतर से पवित्र है, नियत कार्य में दक्ष है, पक्षपात से तथा व्यथा से रहित एवं उदासीन (विरक्त) है, स्वयं आरम्भ करने का तथा अहंकर्तृत्व का त्यागी है एवं जो भक्त शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, अपमान-सम्मान, निन्दा-स्तुति (प्रशंसा या प्रशस्ति) में सम, अनासक्त और यथालाभ सन्तुष्ट रहता है; जो अनिकेत (गृह के प्रति ममत्वरहित या अनगार) है, स्थिरबुद्धि
१. 'अखण्डज्योति, जून १९७४' से भाव ग्रहण
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