________________
ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? 6 २४१
के कारण मैं भी इतना तो जान-देख सकती हूँ कि यह प्रभु महावीर नहीं है, कोई और ही है।" ___ अम्बड़ ने काफी प्रतीक्षा की, किन्तु दर्शनार्थियों की भीड़ में सुलसा कहीं भी दिखाई नहीं दी। वह नहीं गई सो नहीं गई। अतः मुलसा श्राविका को अनन्य-भक्ति की परीक्षा में उत्तीर्ण देख अम्बड़ परिव्राजक गद्गद हो गया। उसने सुलसा के घर जाकर प्रभु महावीर का धर्म-सन्देश सुनाया। फिर कहा-“भाग्यवती मुलसा ! गजगृही नगरी में आप ही एक भाग्यशाली महिला हैं कि आपके लिए प्रभु ने धर्म-सन्देश दिया है।'' सुलसा ने प्रभु का धर्म-सन्देश शिरोधार्य किया।
अनन्य-भक्तिमान् व्यक्ति की परख वस्तुतः जिसके हृदय में वीतराग परमात्मा के प्रति अटल श्रद्धा-भक्ति होती है, उसे कोई कितना ही भय या प्रलोभन देकर विचलित करना चाहे, वह विचलित नहीं होता। अनन्य-भक्तिमान् व्यक्ति को भौतिक, आर्थिक, शारीरिक या मानसिक दृष्टि से चाहे कितनी ही हानि सहनी पड़े, चाहे उस पर संकटों और कष्टों के वज्र ही टूट पड़ें, वह परमात्म-भक्ति से जरा भी विचलित नहीं होता। पूर्ण वीतराग हो, अठारह दोषों से मुक्त एवं वारह गुणों से युक्त जीवन्मुक्त परमात्मा हो या सर्वकर्ममुक्त विदेह सिद्ध परमात्मा हो, उसी के प्रति वह अनन्य-श्रद्धा-भक्ति रखता है। राग-द्वेषादि परिणामों से युक्त चाहे जैसा चमत्कारी, प्रभावशाली या वैभवशाली व्यक्ति हो, वह न तो उससे प्रभावित होता है और न ही उसे वीतराग परमात्मा मानता है।
___ अनन्य-भक्तिमान् व्यक्ति प्रभु को अपने से दूर नहीं मानता इस प्रकार की अनन्य-भक्ति वाला आत्मार्थी व्यक्ति परमात्मा को अपने से कभी दूर नहीं मानता। इस सम्बन्ध में संत कबीर की परमात्मा के प्रति अनन्य-भक्ति प्रसिद्ध है। कबीर से जब किसी दार्शनिक ने कहा-“यदि आपको अपने प्रियतम परमात्मा का साक्षात्कार न हुआ हो, उनका कोई भी सन्देश प्राप्त न हुआ हो तो आप उन्हें पत्र लिखिये, वे अवश्य ही मिलेंगे और अपना सन्देश देंगे।" इस पर कवीर ने बड़ी मार्मिक उक्ति एक दोहे में कही
__ “प्रियतम को पतियाँ लिखू, जो कहुँ होत विदेश।
तन में, मन में, नैन में, ताको का सन्देश ?" -यदि मेरे प्रियतम परदेश या विदेश में होते तो मैं उन्हें पत्र लिखता, उन्हें बुलाता या सन्देश मँगाता, परन्तु वे तो मेरे तन-मन-नयन में समाये हुए हैं, उनको
१. देखें-भगवतीसूत्र में अम्बड़ परिव्राजक का अधिकार २. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org