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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ?
२३५ ॐ
२९वें अध्ययन में चतुर्विंशतिस्तव से दर्शनविशुद्धिरूप फल बताया गया है। इसी सूत्र के २९वें अध्ययन का यह पाठ भी इस तथ्य का साक्षी है
"थवथुइ-मंगलेणं नाण-दंसण-चरित्त-बोहिलाभं जणयइ। नाण-दंसण-चरित्त-बोहिलाभं-संपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिग आराहणं आराहेइ।" ___- स्तव और स्तुतिरूप मंगल से भक्त जीव को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधिलाभ प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधिलाभ से सम्पन्न जीव या तो जन्म-मरणादिरूप संसार का अन्त करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष पाता है या फिर वह कल्पविमानवासी देव वनकर आराधना करता है। ___ 'भगवती आराधना' में भी परमात्म-भक्ति का अनुपम फल बताते हुए कहा गया है-"जैसे विधिपूर्वक बोये हुए बीज से वर्षा होने पर धान्योत्पत्तिरूप फल-प्राप्ति होती है, वैसे ही अरिहन्त आदि की भक्ति से ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप फल की प्राप्ति होती है।" तात्पर्य यह है कि भगवान की स्तुति से या गुण-संकीर्तन से व्यक्ति के पापकर्मों का क्षय हो जाने से वह अपने ज्ञानादिमय शुद्ध स्वरूप को जान लेता है, अपनी शक्ति को पहचान लेता है, तो वह स्वतः ही ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहकर आत्म-स्वभाव में स्थित हो जाता है। इसलिए जैनधर्म में स्तुति से पापक्षय, आत्म-विशुद्धि और स्वरूप का बोध तो माना गया, पर उसे ऐहिक लाभ का या ईश्वर-कृपा से मनोवांछित फल-प्राप्ति का कारण नहीं माना गया। यही कारण है कि ‘सूत्रकृतांग' के छठे अध्ययन में वीरस्तुति (वीरत्थुइ) तथा शक्रस्तव (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के गुणों का उत्कीर्तन तो है, किन्तु उनसे कहीं भी कुछ प्राप्त करने की कामना नहीं की गई है। यह निष्काम-भक्ति का ही रूप था; किन्तु बाद में चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स.) में आरोग्य, बोधिलाभ और उत्तम-समाधि की सिद्धप्रभु से कामना की गई है, वह आध्यात्मिक साधना में आवश्यक मानी गई है। मगर बाद में भद्रबाहु द्वितीय रचित उवसग्गहर स्तोत्र तथा विषायहार स्तोत्र आदि में विविध उपसर्गों से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की गई है। यह जैन-परम्परा पर अन्य परम्पराओं के प्रभाव का सूचक है। सिद्धसेन दिवाकर रचित द्वात्रिंशिका तथा समन्तभद्र आचार्य रचित देवागम स्तोत्र
में जिन-स्तुति के बहाने से दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा की गई है। - तात्पर्य यह है कि प्रभु की स्तुति के माध्यम से जब व्यक्ति अपने शुद्ध
आत्म-स्वरूप को जान लेता है, अपनी शक्ति को पहचान लेता है तो वह ज्ञाता-द्रष्टाभाव में = आत्म-स्वभाव में स्थित हो जाता है। फलतः वासनाएँ स्वतः क्षीण होने लगती हैं। इसीलिए इस प्रकार जैनदर्शन में स्तुति, नाम-म्मरण आदि से रापों का क्षय और आत्म-विशुद्धि मानी गई है। इसका मूल कारण ईश्वरीय-कृपा नहीं, आत्म-स्वभाव का बोध तथा स्वरूपरमणता है।'
१. 'सागर जैन विद्या भारती, भा. १' के आधार पर, पृ. २८
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