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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? ॐ २३३ ॐ
लिए ईश्वर या भगवान का सहारा ढूँढ़ता है। भक्त अपने व्यक्तित्व या स्व-पुरुषार्थ का कोई महत्त्व नहीं समझता। वह भगवान से ही सब कुछ पाने की अपेक्षा रखता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को अपने स्वरूप और अस्तित्व का तथा मानव-जीवन-प्राप्ति के उद्देश्य का प्रायः बोध नहीं होता। वह भगवान की शरण वात-बात में इसलिए ढूँढ़ता है कि निराशा और कुण्ठा उसके मन को दबोच न ले। परन्तु यह सर्वथा पराश्रित होने की शरण उसे भय से भागना सिखाती है, मुकाबला करना नहीं। वह कष्ट से बचना सिखाती है, उससे लड़ने की क्षमता नहीं जगाती। परन्तु ऐसी भक्ति जैन-कर्मविज्ञान के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। जैन-सिद्धान्तानुसार व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से अपना आध्यात्मिक उत्थान, उद्धार या पतन या अवसाद कर सकता है। भगवद्गीता भी इस तथ्य की साक्षी है। जैन-मान्यतानुसार स्वयं पापों से मुक्त होने का प्रयत्न न करके केवल भगवान से पापों या कष्टों से मुक्त करने की प्रार्थना करते रहना, प्रकार करते रहना अर्थहीन है। ऐसी परापेक्षी प्रार्थनाओं ने मानव को विवेकशून्य, त्याग-तपविहीन, केवल पराश्रित बना दिया है। यद्यपि भगवद्गीता में लोकसंग्रह की दृष्टि से आर्त्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, इन चार प्रकार के भक्तों का उल्लेख है। इनमें से जिज्ञासु और ज्ञानी को छोड़कर शेष दो प्रकार के भक्त बालक की तरह पराश्रित, स्व-पुरुषार्थहीन और केवल भगवद्पेक्ष हैं। ऐसे आर्त भक्त को जब समस्याएँ आ घेरती हैं या वह किसी से पीड़ित होता है या उसका मन व्याकुल होता है तो स्वयं निरहंकार होकर किसी प्रकार का सत्पुरुषार्थ न करके भगवान को पुकारता है-“प्रभो ! मेरे कष्ट मिटा दो। मेरे संकट हर लो। मुझे पार उतार दो। मैं तुम्हारा अबोध बालक हूँ। मेरी समस्याएँ या चिन्ताएँ दूर कर दो। मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ।" या फिर अर्थार्थी भक्त होकर रोटी, रोजी, धन, सन्तान, पद, सत्ता, प्रतिष्ठा या किसी स्वार्थसिद्धि के लिए भगवान से प्रार्थना करता है, जो प्रायः विविध सांसारिक कामनामूलक होती है।'
परमात्म-सत्ता का 'स्व' में अनुभव करना भक्ति है, जो आनन्दरूपा है वस्तुतः भक्ति का मार्ग सिखाया नहीं जाता, वह स्वतः उत्पन्न होता है। भक्ति से आनन्द की प्राप्ति होती है। आनन्द से कर्मों का आवरण हटता है। भक्ति के द्वारा परमात्म-सत्ता से अभेदानुभव होने से स्व-चेतना का विकास होता है। इस दृष्टि से
१. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' (उपाध्याय अमर मुनि) के आधार पर, पृ. १२१-१२२ ... (ख) आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ !
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ! -भगवद्गीता, अ. ७, श्लो. १६ (ग) वस्तुतः आर्त और अर्थार्थी न तो उपास्य या आराध्य का स्वरूप समझते हैं और न
ही उनसे क्या आध्यात्मिक प्रेरणा या गुणविकास की प्रेरणा लेनी है ? इसे समझते हैं। ऐसे लोगों की भक्ति तुच्छ सांसारिक कामनामूलक अन्ध-भक्ति या तामस-भक्ति है।
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