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ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? * २३१ 8
भक्ति नहीं, पर-भावों या विभावों की भक्ति है। जैनधर्म में प्राचीनकाल में स्तुति या भक्ति का प्रयोजन परमात्मा से कुछ पाना नहीं रहा।' आचार्य समन्तभद्र ने 'देवागम स्तोत्र' में कहा है-'प्रभो ! न तो मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपकी भक्ति या पूजा करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप वीतराग हैं, मेरी पूजा से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं। इसी प्रकार आप निन्दा करने से भी कुपित नहीं होंगे, क्योंकि आप विवान्त-वैर हैं। मैं तो आपकी भक्ति केवल इसलिए करता हूँ कि आपके पुण्य गुणों की स्मृति से मेरा चित्त पापमल से रहित होगा।"
यद्यपि परवर्ती जैन-साहित्य में यत्र-तत्र सकाम स्तुतियों, प्रार्थनाओं एवं भक्ति-गीतों के रूप देखे जाते हैं, किन्तु सही माने में वीतरागत्व एवं मोक्ष की कर्ममुक्ति की आकांक्षी जैन-परम्परा में फलाकांक्षा से युक्त सकाम-भक्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता, क्योंकि इह-पारलौकिक फलाकांक्षा को निदान-शल्य कहा गया है। जैन-कवि धनंजय ने परमात्म-भक्ति का जैनदृष्टि से यथार्थ आदर्श प्रस्तुत करते हुए कहा है-"प्रभो ! आपकी स्तुति करके मैं आपसे कोई वरदान नहीं माँगना चाहता, क्योंकि कछ भी माँगना तो दीनता है। फिर आप हैं-राग-द्वेष से रहित वीतराग। बिना राग के कौन किसकी आकांक्षा पूरी करता है। पुनः छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर छाया की याचना करना तो व्यर्थ ही है। वह तो स्वतः प्राप्त हो जाती है।"३ अतः जैन-परम्परा में भक्ति का स्रोत निष्कामता है, सकामता तो समसामयिक परम्पराओं से आई है। वास्तव में स्तुति उपास्य के गुणों का उत्कीर्तन है। श्रद्धापूर्वक उत्कीर्तन करने का उद्देश्य अर्हत, सिद्ध या तीर्थंकर के गुणों को अपनाना है और मुख्य प्रयोजन है-आत्मा को शुद्ध स्वभावदशा की उपलब्धि।
इस उद्देश्य के विपरीत जहाँ अपने किसी भौतिक या लौकिक स्वार्थसिद्धि या अपने पापों पर पर्दा डालने या स्वर्ग के प्रमाण-पत्र लेने की दृष्टि से बाह्य-भक्ति, शाब्दिक-भक्ति, सकाम-भक्ति या भावविहीन-भक्ति या बक-भक्ति की जाती है, वहाँ उस भक्ति से कर्मक्षय होने के बदले अशुभ कर्मों का बन्ध ही होता है। कोणिक अजातशत्रु प्रखर सत्यवादी भगवान महावीर से स्वर्ग का प्रमाण-पत्र लेने तथा अपने कृत पापों पर पर्दा डालने हेतु उनकी बाह्य-भक्ति बहुत करता था। किन्तु न तो भगवान महावीर से उसे स्वर्ग का प्रमाण-पत्र मिला और न ही अपने कृत पापों पर पर्दा पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसे स्वार्थी भक्तों के लिए कहा है
“वंचक भक्त कहाय राम के, किंकर कंचन कोह काम के।"
१. 'पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २७७-२७८. २. 'देवागम स्तोत्र' (आचार्य समन्तभद्र) से भाव ग्रहण ३. इति स्तुतिं विधाय दैन्यात्, वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि। - छाया तरुं संश्रयतः स्वतः स्यात्, कश्छायया याचितयाऽऽत्मलाभः? -महाकवि धनंजय
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